छत्तीसगढ़ के दंतेवाडा जिले में हुए बर्बर माओवादी हमले की निंदा मानवाधिकार कार्यकर्ताओं को छोड़ कर सारा देश कर चुका है। आज जब इस बर्बर हमले में मारे गए सुरक्षाकर्मियों के परिवार के प्रति देश भर में संवेदनाएं व्यक्त की जा रही हैं,ऐसे में इन मानवाधिकार कार्यकर्ताओं ने शायद अपने मुंह पर पट्टी बांध ली है! कहां हैं वे मानवाधिकार कार्यकर्ता जिन्हें कथित पुलिसिया जुर्म तो नजर आ जाता है लेकिन माओवादियों ने जिस प्रकार 76 जवानों की निर्मम हत्या कर उनके पूरे घर को उजाड़ दिया,वह उन्हें नजर नहीं आ रहा है?
यदि दंतेवाडा में उल्टा हुआ होता और सुरक्षाकर्मियों ने माओवादियों पर विजय पाई होती तो ये मानवाधिकार कार्यकर्ता वातानुकूलित सभागारों में सेमिनार आयोजित करते और कालेज कैंपसों में जाकर सरकार विरोधी माहौल बनाते,लेकिन अब यह क्यों चुप हैं? उन्हें सिर्फ आदिवासियों की ही गरीबी क्यों नजर आती है। माओवादी हमले में मारे गए सुरक्षाकर्मी भी गरीब परिवारों से थे,उनके बीवी बच्चों का भविष्य क्या होगा यह शायद भगवान ही जाने। लेकिन उनके लिए कम से कम संवेदना तो व्यक्त की ही जा सकती है। क्या इसके लिए मानवाधिकार कार्यकर्ताओं के पास शब्दों का अभाव हो गया है?
माओवादी अथवा नक्सली झारखंड,उड़ीसा या छत्तीसगढ़ में स्कूल या कोई सरकारी कार्यालय उड़ाते हैं तो भी ये मानवाधिकार कार्यकर्ता चुप ही रहते हैं जबकि यही लोग इस बात का ज्यादा रोना रोते हैं कि इलाके में सुविधाएं नहीं होने के कारण लोग असंतुष्ट हो रहे हैं। इन मानवाधिकारवादियों को अपना दोहरा रवैया छोड़ना चाहिए और सुरक्षा की दृष्टि से उठाये गये कदमों का समर्थन करना चाहिए।
आज देश में यह जनमत बन रहा है कि माओवादियों से सेना के द्वारा निपटा जाए क्योंकि अर्धसैनिक बलों पर माओवादियों ने जिस प्रकार पिछले दिनों पश्चिम बंगाल,पिछले सप्ताह उड़ीसा और इस बार छत्तीसगढ़ में धावा बोला, उससे लगता है कि हमारे अर्धसैनिक बलों के पास रणनीति और हथियारों की कमी है,यह स्थिति सेना के साथ नहीं है और उसे हर चीज में प्रशिक्षित किया गया है,ऐसे में उसकी सेवा ली जानी चाहिए और विकराल रूप लेती नक्सल समस्या से एक बार में देश को निजात दिला देनी चाहिए। फिर चाहे कितना भी बोलते रहें ये मानवाधिकार कार्यकता।
अमर शहीदों को नमन करते हुए महेश मूलचंदानी की यह कविता यहां दोहराना चाहूंगा-
जाँ पे खेला बचाया है तुमने वतन
ज़ुल्म सहते रहे गोली खाते रहे
बीच लाशों के तुम मुस्कुराते रहे
कतरे-कतरे से तुमने ये सींचा चमन
आज करता हूँ मैं देशभक्तों नमन
साँप बनकर जो आए थे डसने हमें
कुचला पैरों से तुमने मिटाया उन्हें
कर दिया पल में ही दुश्मनों का दमन
आज करता हूँ मैं देशभक्तों नमन
सर झुकाया नहीं सर कटाते रहे
देख बलिदान दुश्मन भी जाते रहे
माँ ने बाँधा था सर पे तुम्हारे कफ़न
आज करता हूँ मैं देशभक्तों नमन
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भारत माता की जय
नीरज कुमार दुबे
Thursday, 8 April 2010
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8 comments:
चुप कंहा रहे उन्होने तो मांग रखी थी कि ग्रीन हंट बंद किया जाये.पता नही कब शर्म आयेगी उन कथित मानवाधिकारवादियों को.
सादर वन्दे!
ये ऑक्सफोर्ड की भाषा बोलने वाले देशी पामेलियन (कथित मानवाधिकारवादी) तभी भोकते हैं जब उनको इसके लिए लोलीपोप मिलता है,
अभी आगे कुछ नक्श्लियो को मरने दीजिये, ये सभी पामेलियन पागल होकर भोकने लगेंगे.
रत्नेश त्रिपाठी
हालांकि मैं अपनी यह बात पहले एक लेख के जरिये प्रस्तुत करने की सोच रहा था , मगर आपका लेख पढ़ा तो सोचा टिपण्णी में ही मन की भड़ांस निकाल दूं ! सरकार भले ही अभी मुद्दा गरम होने की वजह से नक्श्लियों को गीदड़ भभकी दे रही हो मगर २-४ दिन गुर्राने के बाद ये सब कुछ भूल जायेंगे ! फिर कोई दूसरा दंतेवाडा होगा , फिर ये गुर्रायेंगे और बस इसी तरह चलता रहेगा !
मगर यदि सचमुच ये लोग इस मुद्दे पर गंभीर है और किसी सैनिक कार्यवाही की सोच रहे है तो मेरा मानना है की पहला बम हमारी वायुसेना को जेएनयु पर गिराना चाहिए ! जेल में बंद इनके सारे नेताओं को लाइन से खड़े कर गोली मार देनी चाहिए, क्योंकि जब सैनिक कार्यवाही होगी तो जंगलों में छुपे इनके कायर गुरिल्ले दस्ते तो स्वतः ही आत्म समप्र्पन कर देंगे, मगर मुसीबत की मुख्य जड़ ये इनके बौद्धिक भरष्ट और स्वार्थी आंका है! क्योंकि जब तक ये ज़िंदा रहेंगे , समस्या समूल नष्ट नहीं हो सकती !
आपसे पूरी तरह सहमत
मानवाधिकार इस मुद्दे पर क्यों बोले? जहाँ मानवों पर अत्याचार होगा तो बोलेंगे। भला हिन्दु भी कहीं मानव हैं? भारत के सैनिक भी कहीं मानव हैं?
ये इन हत्या वादियों की राजनैतिक और मीडिया विंग के लोग हैं......जब तक इशारा नहीं होगा तब तक ये नहीं बोलने वाले हैं
'मानवा-धिक्कार' वाले बड़े सेलेक्टिव होते हैं जी.
ऐसे कथित मानवाधिकारवादियों को मै इस पोस्ट के मन्च से फ़टा जूता अर्पित करता हूँ !
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