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Monday 27 December, 2010

विनायक सेन को मिली सजा का भाव समझिए

राजद्रोह के आरोप में डाॅ। विनायक सेन और उनके दो साथियों को मिली उम्रकैद की सजा सही है या गलत, इसका निर्णय तो ऊपरी अदालत करेगी लेकिन छत्तीसगढ़ की स्थानीय अदालत ने अपने फैसले से उन लोगों को कड़ा संदेश दे दिया है जो जन सेवा की आड़ में अपने को कानून और देश से ऊपर समझने लगते हैं। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार के नाम पर कुछ भी कह देना सही नहीं है। ऐसा करने वालों को कड़ा सबक सिखाए जाने की जरूरत है।

यह देख कर कोई आश्चर्य नहीं हुआ कि सेन को मिली सजा के खिलाफ कई बड़े पत्रकारों, लेखकों और राष्ट्रीय तथा अंतरराष्ट्रीय मानवाधिकार संगठनों ने आवाज उठाई। सेन के साथ काम कर चुके या कर रहे लोगों ने भी उन्हें भला आदमी बताते हुए अदालती फैसले पर हैरानी जताई है और इसे घोर अन्याय करार दिया है। यहां सवाल यह है कि जब माओवादी या नक्सली सुरक्षा बलों या निहत्थे ग्रामीणों पर हमला करते हैं और सरकार को चुनौती देने के लिए निर्दोष लोगों की जान लेते हैं तब यह बड़े पत्रकार, लेखक, राष्ट्रीय तथा अंतरराष्ट्रीय मानवाधिकार संगठन कहां चले जाते हैं, तब क्यों यह खामोश हो जाते हैं और पुलिसिया कार्रवाई होते ही उसकी निंदा करने के लिए फिर खड़े हो जाते हैं। इसमें कोई दो राय नहीं कि सेन 80 के दशक से ही छत्तीसगढ़ में रह कर रोगियों की सेवा कर रहे हैं लेकिन इतने भर से यह पाप धुल नहीं जाता कि उन्होंने राज्य के खिलाफ माओवादियों का साथ दिया।

अदालत ने सेन सहित दो अन्य लोगों- नक्सल विचारक नाराय्ाण सान्य्ााल अ©र क¨लकाता के कार¨बारी पीय्ाूष गुहा क¨ भारतीय्ा दंड संहिता की धारा 124ए (राजद्र¨ह) अ©र 120बी (षड्य्ांत्र) तथा छत्तीसगढ़ विशेष ल¨क सुरक्षा कानून के तहत द¨षी ठहराय्ाा है। अदालती आदेश पर उंगली उठाने वालों को यह पता होना चाहिए कि कोई भी अदालत पर्याप्त साक्ष्यों के अभाव में फैसला नहीं सुनाती उस पर से यदि उम्रकैद जैसी बड़ी सजा दी जा रही है तो उसके पीछे पर्याप्त कारणों का मजबूत आधार जरूर होगा। छत्तीसगढ़ सरकार और पुलिस की मंशा पर सवाल खड़े करने से पहले यह भी सोचना चाहिए कि आखिर उनकी विनायक सेन से क्या व्यक्तिगत दुश्मनी हो सकती है। सरकार और पुलिस की लड़ाई तो माओवादियों, नक्सलियों से है और जो उनका साथ देगा वह कानून की जद में आएगा ही भले ही उसने कितने परोपकार के कार्य किये हों या फिर मानवता के लिए कितना भी बड़ा बलिदान दिया हो। कानून सबके लिए बराबर है। सेन पर यदि कोई फौजदारी अथवा अन्य मुकदमा होता तो उनके मानवतावादी कार्यों के चलते शायद अदालत उन्हें कुछ राहत दे भी देती लेकिन राजद्रोह जैसे संगीन आरोप में उन्हें कोई रियायत न देकर अदालत ने जो संदेश देश भर में दिया है उसकी सराहना की जानी चाहिए।

अदालती निर्णय की आलोचना कर हम मात्र एक व्यक्ति को बचाना चाह रहे हैं जबकि ऐसा करने से उन लोगों के हौसले बुलंद होंगे जो अपने बयानों और कार्यों के चलते न सिर्फ लोगों की सुरक्षा को खतरे में डालते हैं बल्कि देश के आंतरिक मामलों को विश्व में विवादित बनाकर सरकार की मुश्किलें भी बढ़ाते हैं। नक्सलियों से जनता की सुरक्षा की जिम्मेदारी सरकार की है लेकिन सेन, कोबाद गांदी और अरुंधति राय जैसे लोगों के चलते सरकार के सामने नई मुश्किलें खड़ी हो जाती हैं। सेन और कोबाद जैसे लोगों पर आरोप है कि वह नक्सलियों के प्रबुद्ध वर्ग हैं और उनकी विचारधारा को फैला रहे हैं। यदि यह आरोप सही है तो उन्हें खुल कर अपना कार्य करना चाहिए क्योंकि जन सेवा की आड़ में ऐसा कर वह सभी को मूर्ख बना रहे हैं।

निश्चित रूप से जन सेवा के कार्यों के लिए विनायक सेन की सराहना होनी चाहिए लेकिन यदि उन्होंने राज्य्ा के खिलाफ संघर्ष का नेटवर्क तैय्ाार करने के लिए माअ¨वादिय्ा¨ं के साथ साठगांठ की, (इस आरोप में वह दोषी ठहराये गये हैं) तो इसकी निंदा भी की जानी चाहिए। विनायक सेन को मिली सजा के विरोध में खड़े लोगों को यह समझना चाहिए कि उनका समर्थन अरुंधति राय और हुर्रियत नेता गिलानी जैसे लोगों का हौसला बढ़ाएगा और भारतीय सरजमीं पर ही भारत विरोधी बातें करने की और घटनाएं होती रहेंगी। सेन को मिली सजा की मात्रा कितनी सही है या कितनी गलत इसका निर्णय करने का अधिकार ऊपरी अदालत पर छोड़ दें क्योंकि देश का न्याय तंत्र बेहद लोकतांत्रिक और परिपक्व है।

जय हिन्द, जय हिन्दी
नीरज कुमार दुबे

Monday 13 December, 2010

शहादत पर सियासत से कैसे रुकेगा आतंकवाद?

अपने बड़बोले बयानों से पहले भी विवाद खड़ा करते रहे कांग्रेस महासचिव दिग्विजय सिंह का यह कहना कि हेमंत करकरे ने मुंबई हमले से कुछ घंटे पहले मुझे फोन कर कहा था कि उन्हें हिंदू आतंकवादियों से खतरा है, सोची समझी राजनीतिक रणनीति का हिस्सा लगता है। उनका यह बयान ऐसे समय आया है जब कांग्रेस नेतृत्व भ्रष्टाचार के विभिन्न मुद्दों पर विपक्ष की ओर से बनाए जा रहे दबाव के चलते परेशानी में है और संसद का पूरा शीतकालीन सत्र हंगामे की भेंट चढ़ गया तथा कई महत्वपूर्ण विधेयकों के पास नहीं होने के चलते सरकार अजीब संकट की स्थिति में है। साथ ही वाराणसी में हुए विस्फोट मामले में भी केंद्र को ही निशाने पर लिया जा रहा है।

भ्रष्टाचार के मुद्दों पर जनता को उद्वेलित करने में विपक्ष कामयाब नहीं हो जाए इसके लिए कांग्रेस की ओर से देश का राजनीतिक माहौल बदलने का बीड़ा दिग्विजय सिंह ने उठाया। मुंबई हमला चूंकि देश पर अब तक का सबसे बड़ा आतंकी हमला था और इसे लेकर जनता में अब भी आक्रोश है, सो दिग्विजय ने कहा कि तत्कालीन एटीएस प्रमुख हेमंत करकरे को हिंदुत्ववादी ताकतों से खतरा था। हिंदुत्ववादी ताकतों से उनका सीधा आशय हमेशा से संघ परिवार से ही रहा है। जब उनके इस बयान पर विवाद हुआ और खुद उनकी ही पार्टी ने दिग्विजय के इस बयान से अपने को दूर कर लिया तो दिग्विजय भी पलटी मार गए। लेकिन पलटी मारते मारते भी दिग्विजय यह कहने से नहीं चूके कि उन्होंने मुंबई हमले के पीछे ‘हिंदू आतंकवादियों’ का हाथ होने की बात नहीं की। ‘हिंदू आतंकवाद’ शब्द को स्थापित करने में जीजान से जुटे दिग्विजय ने यह बयान भले ही अपनी सियासी रणनीति के तहत दिया हो लेकिन इसमें कोई दो राय नहीं कि उनके इस बयान से भारत का यह पक्ष कमजोर हुआ कि मुंबई हमला पूरी तरह पाकिस्तान आधारित हमला था और इसे पाकिस्तान में प्रशिक्षित आतंकवादियों ने अंजाम दिया।

दिग्विजय ने अपनी पार्टी के हित के लिए इस बयान से 2जी स्पेक्ट्रम आवंटन में घोटाला, आदर्श हाउसिंग सोसायटी घोटाला तथा राष्ट्रमंडल खेल घोटाले को लेकर गर्म राजनीतिक माहौल से लोगों का ध्यान हटाने की कोशिश की लेकिन वेबसाइट विकीलीक्स पर जारी अमेरिकी दस्तावेजों ने पार्टी की मुश्किलें यह कह कर बढ़ा दीं कि मुंबई हमले के बाद कुछ कांग्रेसी नेताओं ने धर्म की राजनीति शुरू कर दी थी। इससे अब तक दूसरे दलों पर साम्प्रदायिक राजनीति करने का आरोप लगाती रही कांग्रेस खुद ही ऐसे आरोपों से घिर गई। विकीलीक्स पर जारी दस्तावेजों के मुताबिक भारत में तत्कालीन अमेरिकी राजदूत डेविड मलफोर्ड ने अपने देश में भेजी रिपोर्ट में कहा कि अल्पसंख्यक मामलों के तत्कालीन मंत्री एआर अंतुले ने 26/11 में हिंदुत्ववादी ताकतों का हाथ होने का आरोप लगाया और कांग्रेस ने इस बयान का सियासी लाभ उठाने के लिए इसे खारिज नहीं किया।

दिग्विजय और विकीलीक्स के खुलासे कांग्रेस के धर्मनिरपेक्ष होने के दावों को विरोधाभासी करार देते हैं। इससे विपक्ष के उन आरोपों को भी बल मिलता है कि कांग्रेस अल्पसंख्यकों को साम्प्रदायिकता का भय दिखाकर चुनावी लाभ अर्जित करती रही है।

विवादित बयान देकर भाजपा पर ही सवालों की झड़ी लगाने वाले दिग्विजय से भी कुछ सवाल पूछे जाने चाहिएं। पहला सवाल तो यही है कि यह बात उन्होंने दो वर्ष तक छिपाए क्यों रखी? उन्होंने मुंबई हमलों की जांच से जुड़ी एजेंसियों को यह बात अब तक किस कारण से नहीं बताई थी? दिग्विजय के बयान से यह सवाल भी उठता है कि कोई एटीएस प्रमुख किसी राजनीतिक पार्टी के नेता से अपनी मुश्किलें क्यों बयां करेगा? इससे तो उन आशंकाओं को बल मिलता है कि कोई जांच किसी पार्टी द्वारा निर्देशित की जा रही है। गौरतलब है कि करकरे मालेगांव विस्फोट मामले की जांच कर रहे थे और उन पर हिंदुत्ववादी ताकतों ने साध्वी प्रज्ञा और अन्य को बेबुनियाद आरोपों में फंसाने का आरोप लगाया था। दिग्विजय और करकरे के इस कथित वार्तालाप पर कांग्रेस के अन्य महासचिव जनार्दन द्विवेदी की इस सफाई को ‘मासूम’ ही कहा जाएगा कि करकरे का परिवार मध्य प्रदेश से ताल्लुक रखता था इसलिए उनकी दिग्विजय से जान पहचान थी। पता नहीं कितने ऐसे एटीएस प्रमुख होंगे जिनका किसी और राज्य से नाता हो तो क्या वह भी वहां के किसी राजनीतिक पार्टी के नेता को अपनी मुश्किलें बताते हैं? यदि करकरे को कोई मुश्किल थी तो वह महाराष्ट्र के पुलिस प्रमुख, गृह सचिव, गृह मंत्री, मुख्यमंत्री या राज्यपाल को बता सकते थे ऐसे में वह भला दिग्विजय को क्यों चुनते। यदि वह दोनों मित्र भी थे तो इस बात की जांच होनी चाहिए कि यह मित्रता कब से थी और किस स्तर की थी? जो व्यक्ति इस दुनिया में नहीं हो, उसके बारे में कोई भी दावा किया जा सकता है लेकिन ऐसा करने से पहले जरा नैतिकता की बात करने वालों को यह तो सोच लेना चाहिए कि उन्हें सिर्फ अपना सियासी भला ही क्यों नजर आता है?

दिग्विजय के बयान के बाद महाराष्ट्र के उपमुख्यमंत्री अजित पवार ने तथ्यों को एकत्रित कर गृहमंत्री और पुलिस विभाग से चर्चा करने की बात कही है, लेकिन सच सामने आ पाएगा इसमें संदेह है क्योंकि आखिरकार मुख्यमंत्री तो कांग्रेस पार्टी का ही है। जिस तरह दिग्विजय ने राजनीतिक दांव खेलने के लिए यह विवादित बयान दिया उसी प्रकार कांग्रेस पर राजनीतिक दबाव बनाने के लिए उसकी सहयोगी राकांपा तथ्यों को एकत्रित करने की बात कर रही है। जबकि सुबूतों से यह बात साबित हो चुकी है कि समुद्र के रास्ते आए पाकिस्तानी आतंकवादियों ने मुंबई हमले को अंजाम दिया और करकरे सहित विभिन्न पुलिसकर्मी उनकी गोलियों के शिकार हुए। करकरे की पत्नी ने भी दिग्विजय के बयान के बाद साफ कहा है कि उनके पति की शहादत का मजाक नहीं बनाया जाए। कविता करकरे ने कहा, ’’यह कहना गलत है कि मेरे पति को हिंदू संगठनों ने मारा है। वह आतंकी हमले में शहीद हुए हैं।’’
उक्त विवादित बयान के बाद भले ही दिग्विजय ने पलटी मार ली हो लेकिन वह भाजपा सहित संघ परिवार के निशाने पर एक बार फिर आ गए हैं। भाजपा ने इसे नया विवाद खड़ा करने की सोची समझी रणनीति बताते हुए प्रधानमंत्री और कांग्रेस अध्यक्ष से सफाई मांगी है तो शिवसेना ने कहा कि इससे यह बात साफ हो गई है कि कांग्रेस नेता मालेगांव मामले की जांच को नियंत्रित कर रहे हैं। यही नहीं दिग्विजय को अपने इस बयान के लिए अपनी ही पार्टी के भीतर भी आलोचना सुनने को मिल रही है। मुंबई से कांग्रेस सांसद संजय निरूपम ने दिग्विजय के बयान को गैरजरूरी करार दिया है।

दिग्विजय के इस बयान के सियासी कारणों पर निगाह डाली जाए तो फौरी तौर पर कांग्रेस नेतृत्व के समक्ष भ्रष्टाचार के विभिन्न मुद्दों पर खड़ी चुनौतियों के अलावा असम विधानसभा चुनाव भी हैं। दिग्विजय को हाल ही में असम का प्रभार सौंपा गया है। संभव है उन्होंने अल्पसंख्यक वोटों को लुभाने के लिए यह चाल चली हो। पहले भी वह उत्तर प्रदेश में अल्पसंख्यकों को लुभाने के लिए दिल्ली के बाटला मुठभेड़ में मारे गए आतंकवादियों के आजमगढ़ स्थित घर जाकर राजनीतिक बवाल खड़ा कर चुके हैं।

आजकल आरएसएस और हिंदुत्ववादी ताकतों को विशेष रूप से अपने निशाने पर लिए दिग्विजय कांग्रेस में दूसरे ‘अर्जुन सिंह’ बनने की कवायद में जुटे हुए हैं। यह सही है कि उन्होंने अपने बयानों से अब तक जो विवाद खड़े किए उससे कांग्रेस भी मुश्किलों में फंसी चाहे वह नक्सल समस्या से निबटने में चिदंबरम की विफलता को लेकर उनका लिखा लेख हो या फिर बाटला मुठभेड़ पर सवाल उठाने का, सभी मामलों में कांग्रेस मीडिया से आसानी से पल्ला नहीं छुड़ा पाई। लेकिन एक बात काबिले गौर है कि दिग्विजय जो भी विवाद खड़ा करें पार्टी के बड़े वर्ग का समर्थन उन्हें हासिल रहता है। चिदंबरम पर दिग्विजय की टिप्पणी के बाद ‘कांग्रेस संदेश’ में पार्टी अध्यक्ष ने नक्सल समस्या पर अपना जो मत रखा वह दिग्विजय के मत से मिलता जुलता था। यही नहीं दिग्विजय ने ही सबसे पहले ‘हिंदू आतंकवाद’ का मुद्दा उठाया और जब चिदंबरम ने भी यही बात कही तो यह बड़ा मुद्दा बन गया। दिग्विजय संघ और सिमी को एक जैसा काफी समय पहले से बताते रहे हैं लेकिन जब राहुल गांधी ने यही बात कही तो यह भी बड़ा मुद्दा बन गया। साफ है कि कांग्रेस के भीतर से उन्हें शह हासिल है। वह पहले तीर छोड़ते हैं यदि वह निशाने पर जा लगे तो पार्टी आलाकमान उसे बड़ा हथियार बना देता है।
अपने बयान पर विवाद होने के बाद अब भले ही दिग्विजय कह रहे हैं कि उनके कहने का मतलब यह नहीं था कि मुंबई हमले को आरएसएस ने अंजाम दिया लेकिन आरएसएस की छवि बिगाड़ने के अपने दायित्व को बखूभी निभा रहे दिग्विजय ने अपना काम तो कर ही दिया। पर विकीलीक्स के खुलासों से कांग्रेस मुश्किल में आ गई है क्योंकि एक तो इस पर वह स्पष्ट रूप से कुछ कह नहीं पा रही है दूसरे विपक्ष के अनुसार इससे कांग्रेस की इस योजना पर कुछ तो ग्रहण लगा ही है कि साम्प्रदायिकता का भय दिखाकर लाभ अर्जित किया जाए।

बहरहाल, इस प्रकरण से कांग्रेस के सामने जो नई मुश्किल खड़ी हुई है उससे बाहर निकलना इतना आसान नहीं है क्योंकि विकीलीक्स के खुलासों ने विपक्ष को भी धारदार हथियार मुहैया करा दिया है। 2009 के लोकसभा चुनावों में एक बार फिर विजय प्राप्त करने के बाद शायद ही कांग्रेस ने सोचा होगा कि डेढ़ साल के भीतर सरकार बड़ी मुश्किलों का सामना करती दिखाई देगी। अब देखना यह है कि मुंबई हमले को राजनीतिक रंग देने की दिग्विजय की कवायद क्या गुल खिलाती है? यह भी देखने वाली बात होगी कि क्या सचमुच इसके कारण देश का ध्यान भ्रष्टाचार के मुद्दों से हट जाएगा?

आज संसद पर हुए आतंकवादी हमले को पूरे 9 वर्ष हो गए इस मौके पर संसद हमले के दौरान शहीद हुए सुरक्षाकर्मियों और संसद भवन कर्मचारियों को सच्चे मन से श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए उम्मीद करता हूं कि सरकार कुम्भकर्णी नींद से जागेगी और इस हमले के गुनहगार अफजल गुरु को फांसी की सजा पर जल्द से जल्द तामील करेगी।

जय हिन्द
भारत माता की जय

नीरज कुमार दुबे