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Monday 11 February, 2013

जिंदा अफजल पर जब होती थी राजनीति तो मौत पर भी होनी ही थी


संप्रग सरकार ने संसद हमला मामले में दोषी ठहराये गये अफजल गुरु को फांसी पर चढ़ाया तो इसके साथ ही राजनीति भी शुरू हो गयी। विपक्ष कह रहा है कि इस वर्ष होने वाले 9 राज्यों के विधानसभा चुनाव और अगले वर्ष होने वाले लोकसभा चुनावों को ध्यान में रखते हुए यह कदम उठाया गया तो सरकार की दलील है कि कानून ने विधिपूर्वक अपना कार्य किया। लेकिन वजह जो भी हो, भारत की सॉफ्ट स्टेट की छवि को तोड़ने में यह कदम जरूर मददगार साबित होगा।

अब 21 फरवरी से शुरू हो रहे संसद के बजट सत्र में सरकार के हौसले बुलंद रहेंगे और राष्ट्रपति के अभिभाषण में अपनी उपलब्धियों का बखान संप्रग सरकार खूब कर सकती है। पिछले छह महीने से सरकार और कांग्रेस ने एकदम कमर कस रखी है और समय के हिसाब से कभी सख्त आर्थिक तो कभी राजनीतिक फैसले लेकर उस पर तेजी से अमल कर रही है। पिछले माह जयपुर में हुई कांग्रेस की चिंतन बैठक में तय किया गया था कि विपक्ष जिन जिन संभावित मुद्दों पर आने वाले चुनावों में कांग्रेस को घेर सकता है उन उन मुद्दों का हल निकाल कर विपक्ष को नए मुद्दों की खोज करने में ही समय व्यतीत करने को विवश कर दिया जाए। अफजल की सजा पर अमल भी विपक्ष के तरकश के सभी तीरों को खत्म कर देने के प्रयास के तहत हुआ हो, ऐसा संभव है।

यह भी संभव है कि तय रणनीति के अनुसार गृहमंत्री सुशील कुमार शिंदे ने कांग्रेस की चिंतन बैठक में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और भारतीय जनता पार्टी पर हिन्दू आतंकवाद को बढ़ावा देने के लिए आतंकी प्रशिक्षण केंद्र चलाने का आरोप लगाया हो। बाद में कांग्रेस पार्टी ने शिंदे के इस आरोप से किनारा भी कर लिया और दूसरी तरफ भाजपा और संघ परिवार को अन्य मुद्दों को दरकिनार कर भगवा आतंकवाद मुद्दे पर धरने प्रदर्शन करने के लिए बाध्य कर दिया। जब भगवा आतंकवाद मुद्दा छा गया तो अफजल की फांसी पर अमल कर सभी तरह के आतंकवाद को एक ही चश्मे से देखने का दावा किया गया। जो शिंदे भगवा आतंकवाद को लेकर विपक्ष के निशाने पर थे उनकी स्थिति अब पहले से बहुत मजबूत हो गयी है क्योंकि उन्होंने राष्ट्रपति की ओर से अफजल गुरु की दया याचिका खारिज करने के तुरंत बाद उसको फांसी दिए जाने संबंधी आदेश पर हस्ताक्षर कर दिये। नरम व्यक्ति की अपनी छवि को तोड़ते हुए शिंदे ने बतौर गृहमंत्री तीन महीने के भीतर दो दुर्दांत आतंकवादियों- अजमल कसाब और अफजल गुरु को फांसी दिलवाकर और वह भी बड़े ही गुपचुप तरीके से, अपनी कार्यक्षमता को सिद्ध किया है। हालांकि यहां गौर करने वाली बात यह भी है कि इससे पहले शिंदे जिन मंत्रालयों में रहे उनमें कभी कोई बड़ा कार्य नहीं कर पाये ऐसे में यहां सवाल यह भी उठता है कि वह कहीं से निर्देशित तो नहीं हो रहे?

यह बात सही है कि अफजल को फांसी से केंद्र सरकार ने आतंकवाद को साफ संदेश दिया है कि किसी भी सूरत में भारत विरोधी कार्रवाई को बर्दाश्त नहीं किया जाएगा। लेकिन ऐसे मामलों पर तुरंत कार्यवाही होने से ही आतंकवादियों का मनोबल गिराया जा सकता है। सन 2005 में जब अफजल की सजा ए मौत पर सुप्रीम कोर्ट ने भी अपनी मुहर लगायी थी तभी यदि सजा पर अमल कर दिया जाता तो संभव है कि उसके बाद हुई आतंकी घटनाओं को अंजाम देने से पहले आतंकवादी दस बार सोचते। अफजल को फांसी की टाइमिंग पर सवाल अब भले विपक्ष उठा रहा हो लेकिन उसके मामले को जान बूझकर लटकाने के आरोप भी कांग्रेस पर लगते रहे। खुद अफजल ने भी ऐसा ही कुछ आरोप कांग्रेस पर लगाया था। 2008 में आए अफजल के एक साक्षात्कार के मुताबिक उसने कहा था, 'मैं तिल तिलकर मरना नहीं चाहता। लेकिन केंद्र सरकार फांसी नहीं देगी इसलिए मेरी मंशा है कि आडवाणी प्रधानमंत्री बन जाएं क्योंकि वही एकमात्र ऐसा व्यक्ति है जो उसकी फांसी पर जल्द फैसला ले सकता है'।

कसाब और अफजल मामले के बाद अब जब समझौता ट्रेन धमाका और मालेगांव बम धमाके के आरोपियों की दोषसिद्धि और सजा पर अमल की बात आएगी तो कांग्रेस सरकार उन पर भी तेजी से कार्यवाही कर हर तरह के आतंकवाद को एक ही नजर से देखने की बात और पुख्ता तरीके से कह सकेगी। अफजल को फांसी से होने वाले कुछ असरों की बात करें तो जिस तेजी के साथ कसाब और अफजल की सजा को अंजाम दिया गया उससे आतंकवादियों के मन में यह खौफ तो जरूर पैदा होगा कि अब सरकार सख्त फैसले लेने में हिचक नहीं रही है। साथ ही उन आतंकवादियों की बारी भी अब जल्द आ सकती है जोकि मौत की सजा पर अमल की प्रतीक्षा कर रहे हैं। राजनीतिक रूप से जो असर पड़े हैं उनमें प्रमुख यह है कि पिछले कुछ दिनों से भाजपा और संघ परिवार की ओर से देश में जो हिन्दुत्ववाद का माहौल बनाया जा रहा था उसको कांग्रेस ने राष्ट्रवाद के माहौल में बदल दिया है और राहुल बनाम मोदी की बहस भी अब कुछ दिनों तक थमने के आसार हैं। हालांकि अब इन अटकलों को भी बल मिला है कि सरकार समय से पहले चुनाव करा सकती है।

इस मामले को लेकर राजनीति पहले से ही होती रही है इसलिए अब कोई नई बात नहीं दिखाई पड़ती। भाजपा अब तक जिंदा कसाब और अफजल को लेकर सरकार को घेरती रहती थी वहीं अब कांग्रेस चुनावों में कसाब और अफजल की मौत का श्रेय लेने से नहीं हिचकेगी। कांग्रेस नेता और सूचना प्रसारण मंत्री मनीष तिवारी के एक बयान से इस बात की पुष्टि भी होती है जिसमें उन्होंने कहा, ''जिन्होंने आतंकवादियों को पनाह दी और उनके साथ कंधार गए’’ उन्हें अन्य के नेतृत्व वाली सरकारों पर अंगुली उठाने के पहले आत्मनिरीक्षण करना चाहिए।''

बहरहाल, इस मामले पर राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी को सबसे ज्यादा श्रेय जाता है क्योंकि उन्होंने दया याचिका पर अपने पूर्ववर्तियों की तरह निर्णय को लटकाया नहीं। उनके सख्त तेवरों से साफ है कि आतंकवाद किसी भी कीमत पर बर्दाश्त नहीं किया जाएगा और वह महज रबर स्टाम्प बने रहने वाले राष्ट्रपति नहीं हैं।

जय हिंद, जय हिंदी
नीरज कुमार दुबे