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Friday 25 November, 2011

किशनजी की मौत से आतंक का एक और अध्याय समाप्त


देश के नक्सल प्रभावित राज्यों में आतंक का दूसरा पर्याय बन चुके शीर्ष माओवादी नेता मोलाजुला कोटेश्वर राव उर्फ किशनजी की सुरक्षा बलों के साथ मुठभेड़ में मौत से नक्सल आंदोलन का एक प्रमुख अध्याय समाप्त हो गया है। 26/11 के मुंबई हमलों की बरसी से ठीक पहले आंतरिक सुरक्षा के मोर्चे पर यह सचमुच सरकार और जनता के लिए बड़ी राहत की खबर है। यकीनन नक्सल विरोधी कमांडो बटालियन कोबरा ने नक्सली आंदोलन पर जो कमरतोड़ कार्रवाई की है उससे उसका शीर्ष नेतृत्व ही लगभग ध्वस्त हो गया है।

हालांकि इस घटनाक्रम के बाद माओवादियों की ओर से बदला लेने की कोई बड़ी कार्रवाई की जा सकती है इसलिए नक्सल प्रभावित क्षेत्रों में इस समय अत्यधिक सुरक्षा बरते जाने की जरूरत है साथ ही सुरक्षा बलों को चाहिए कि नेतृत्व के धराशायी होने से हताश माओवादियों को संभलने का मौका दिए बिना उनके खात्मे का प्रयास तेजी के साथ जारी रखें और ‘लाल गलियारे’ के लक्ष्य को नेस्तनाबूत कर दें। माओवादी और नक्सली देश के विकास की राह में बहुत बड़े बाधक हैं और यह भारत के लिए तालिबान से कम नहीं हैं। सभ्य समाज में इनकी कोई जरूरत नहीं है। यह जो भी सवाल उठाते रहे हैं उसके पीछे कारण चाहे जो हों लेकिन कानून अपने हाथ में लेना, आतंक फैलाना और अपने देश के खिलाफ आईएसआई जैसे विदेशी संगठनों की मदद से अभियान चलाना किसी भी तरह से क्षमा लायक नहीं है।

किशनजी की मौत की खबर हालांकि इससे पहले भी एक बार उड़ी थी लेकिन इस बार उसका शव मुठभेड़ के बाद बरामद किया गया और पहचान की गई। किशनजी माओवादी पोलित ब्यूरो का सदस्य था और जंगलमहल में 2009 से सशस्त्र संघर्ष के नेतृत्व करने वालों के पदसोपान में तीसरे नम्बर पर था। इलाके में किशनजी की मौजूदगी की सूचना मिलने के बाद अभियान चलाने वाले सीआरपीएफ, बीएसएफ और कोबरा के 1,000 जवानों ने सराहनीय काम किया है क्योंकि इन्होंने न सिर्फ नक्सली व माआेवादी हमलों में मारे गये सुरक्षा बलों की मौत का बदला लिया बल्कि आगे के लिए भी अपने साथियों सहित जनता को महफूज करने की दिशा में बड़ा कदम उठाया।

किशनजी को घेरे जाने के प्रयास पहले भी होते रहे हैं लेकिन तृणमूल कांग्रेस के कुछ कायर्कर्ताआें की हत्या के बाद पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने यह ठान लिया था कि 'अब बहुत हो चुका*। यही नहीं पिछले दिनों उन्होंने माओवादियों को आतंकवादियों से ज्यादा खतरनाक भी बताया था। खबरों के मुताबिक इस बार किशनजी की योजना झारखंड के मालाबल जंगल में भाग जाने की थी लेकिन सुरक्षा बलों ने बच कर निकलने वाले सभी रास्तों को बंद कर दिया और उसे बुरीसोल जंगल में रोक दिया और मार गिराया।
किशनजी की मौत अपने शासन के छह महीने बाद जनता और विपक्ष के सवालों से घिरीं ममता बनर्जी के लिए जबरदस्त राहत लेकर आई है। किशनजी की मौत के बाद कुछ लोग उन्हें ‘दुर्गा’ की उपाधि दे रहे हैं लेकिन उन लोगों को यह नहीं भूलना चाहिए कि ममता पर चुनावों के समय माओवादियों का साथ लेने के आरोप भी लगते रहे हैं। खुद ममता ने चुनावों से पहले कई बार उनसे सहानुभूति दर्शाई थी लेकिन उन्हें जल्द ही समझ आ गया कि ‘लातों के भूत बातों से नहीं मानते’।

किशनजी की मौत पर राजनीति भी शुरू हो गयी है। पश्चिम बंगाल की विपक्षी पार्टी माकपा इस 'कामयाबी' को तवज्जो नहीं दे रही है और कह रही है कि इससे माओवादियों पर बहुत ज्यादा असर नहीं पड़ेगा क्योंकि उन्हें राष्ट्रविरोधी ताकतों का समर्थन प्राप्त है। यही नहीं राज्य विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष सूर्यकांत मिश्रा ने तो यहां तक कहा कि ''यदि वह जिंदा पकड़े जाते, तो मुझे ज्यादा खुशी होती है। मेरी उनके परिवार के प्रति सहानुभूति है।'' बहरहाल, राजनीतिज्ञ इस घटनाक्रम से अपने फायदे और नुकसान का आकलन लगाते रहें लेकिन सुरक्षा बलों के लिए तो यह बहुत ही बड़ी कामयाबी है जोकि माओवादी हमलों के सबसे ज्यादा शिकार रहे हैं।

इसके साथ ही इस बात को लेकर भी बहस शुरू हो गयी है कि क्या भाकपा (माओवादी) संगठन में तीसरा स्थान मनहूस है, यह सवाल इसलिए उठ रहा है क्योंकि सुरक्षा बलों की ओर से जिन दो शीर्ष नक्सली नेताओं किशनजी और आजाद को मारा गया तब वे अधिक्रम में तीसरा स्थान ही हासिल किये हुए थे। मूलत: तेलुगू भाषी किशनजी के सिर पर 19 लाख रुपये का इनाम था और वह नक्सलियों की शीर्ष संस्था पोलित ब्यूरो में तीसरा 'इन कमांड' थे। इससे पहले पिछले साल आजाद को आंध्र प्रदेश पुलिस ने मुठभेड़ में मार गिराया था। उस समय आजाद के पास भी नंबर तीन का स्थान हासिल था। गौरतलब है कि गृह मंत्रालय की ओर से तैयार डोजियर के अनुसार, भाकपा (माओवादी) पोलित ब्यूरो का शीर्ष प्रमुख महासचिव गनपति है जिनके सिर पर 24 लाख रुपए का इनाम है। दूसरा 'इन कमांड' एन॰ केशव राव है जिनके सिर पर 19 लाख रुपए का इनाम घोषित है। पोलित ब्यूरो के अन्य सदस्य कत्तम सुदर्शन, माल्लोजुला वेणुगोपाल, प्रशांत बोस उर्फ किशन दा और मल्लाराजी रेड्डी हैं।

जय हिंद, जय हिंदी
नीरज कुमार दुबे

Thursday 8 September, 2011

आतंकवाद पसार रहा पांव, फेल हो रहे सरकारी दांव



देश की राजधानी दिल्ली फिर दहली, फिर मारे गये आम नागरिक, फिर शुरू हुई आरोप प्रत्यारोप की राजनीति, फिर बिठाई गई जांच, फिर सामने आई सुरक्षा में चूक की बात, फिर फेल हुई खुफिया एजेंसियां, फिर ढूंढा गया एक और घटना को बयान करने के लिए शार्टकट ‘9/7’ और इसके साथ ही अंत में हमने फिर नहीं सीखा कोई सबक। यह वाकई दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति है कि देश में आतंकवादी घटनाएं पांव पसारती जा रही हैं और केंद्र सरकार हाथ पर हाथ धरे बैठे है। जिन ‘कड़ी सुरक्षाओं’ और ‘सुरक्षा के पुख्ता प्रबंधों’ का हवाला दिया जा रहा है वह तो सिर्फ नेताओं, वीवीआईपी, होटलों और महत्वपूर्ण प्रतिष्ठानों तक ही सीमित हैं। नेताओं की सुरक्षा की तो समय समय पर समीक्षा की जाती है और उन्हें कभी जेड तो कभी वाई तो कभी एनएसजी तो कभी किसी और उच्च स्तर की सुरक्षा मुहैया करायी जाती है लेकिन आम जनता को तो भाग्य भरोसे छोड़ दिया गया है।

जनता की उच्च सुरक्षा की बात तो छोडि़ये स्थानीय पुलिस थानों में भी पर्याप्त कर्मी नहीं होते हैं जो इलाके पर नजर रख सकें। दिल्ली उच्च न्यायालय में हालांकि कड़ी सुरक्षा रहती है लेकिन जहां आम आदमी अंदर जाने के लिए प्रवेश पास बनवाता है उस स्थल की सुरक्षा का ख्याल किसी को नहीं आया। यही नहीं उच्च न्यायालय परिसर के भीतर तो सीसीटीवी कैमरा मौजूद हैं लेकिन जहां पर सिर्फ आम जनता को काम पड़ता है वहां इन कैमरों की व्यवस्था नहीं की गयी। इस बारे में दिल्ली पुलिस की ओर से कहा जा रहा है कि सीसीटीवी लगाने के लिए वह पहले ही सीपीडब्ल्यूडी को पत्र लिख चुकी है। यहां सवाल यह उठता है कि आम आदमी की जान की कोई कीमत इस सरकार और प्रशासन की नजर में है या नहीं? किसी भी घटना के बाद मुआवजा घोषित कर सरकार अपने कर्तव्यों की इतिश्री समझ लेती है लेकिन उन परिवारों से जाकर पूछिये जो ऐसी घटनाओं में अपने प्रियजनों को खो बैठते हैं कि उन पर क्या बीती है और क्या यह मुआवजा उनको हुए नुकसान की क्षतिपूर्ति कर सकता है?

दिल्ली उच्च न्यायालय के स्वागत कक्ष के बाहर हुए विस्फोट के तत्काल बाद एक पुलिस अधिकारी का टीवी चैनलों पर यह कहना कि वह एरिया हमारे कंट्रोल में नहीं था, बेहद आपत्तिजनक है। दिल्ली पुलिस की जिम्मेदारी पूरी दिल्ली की सुरक्षा की है ऐसे में यह कैसे कहा जा सकता है कि किसी परिसर के अमुक इलाके की सुरक्षा हमारे जिम्मे नहीं है। दिल्ली पुलिस की मुस्तैदी का पता भी इस बात से चलता है कि तीन महीने तेरह दिन पहले जिस जगह (दिल्ली उच्च न्यायालय के बाहर पार्किंग में) धमाका हुआ उस जगह की सुरक्षा के उसने क्या प्रबंध किये थे। 25 मई को हुए उस धमाके की जांच अब तक जारी है और पुलिस के हाथ पूरी तरह खाली हैं। मीडिया रिपोर्टों पर गौर करें तो दिल्ली में हुए पिछले कई धमाकों की जांच भी अभी चल ही रही है। यही नहीं दिल्ली पुलिस गृहमंत्री पी. चिदम्बरम के संसद में दिये गये उस बयान के बाद भी सवालों के घेरे में है, जिसमें गृहमंत्री ने कहा कि उसे खुफिया सूचना दी गयी थी। लेकिन पुलिस का कहना है कि यह सूचना 15 अगस्त के लिए थी। दिल्ली के उपराज्यपाल तेजिंदर खन्ना ने भी कहा है कि केंद्रीय गृह मंत्रालय की ओर से आतंकवादी हमले को लेकर खास खुफिया जानकारियां साझा नहीं की गई थीं। अब सवाल उठता है कि कौन सही बोल रहा है चिदम्बरम या फिर दिल्ली पुलिस और उपराज्यपाल? यह बात भी दिल्ली पुलिस के लिए यह शर्मनाक ही है कि धमाके की जांच एनआईए को सौंपी गयी। यह पहला ऐसा मामला है जिसकी जांच पहले ही दिन से एनआईए को सौंपी गयी। यह दर्शाता है कि शायद केंद्र सरकार को भी दिल्ली पुलिस की कार्यक्षमता पर संदेह नजर आ रहा है। हालांकि एनआईए का भी अब तक का कार्यकाल कोई उल्लेखनीय नहीं रहा है और कथित भगवा आतंकवाद के मामलों को छोड़कर वह देश में हुए विभिन्न आतंकवादी धमाकों के मामले में जांच ही कर रही है।

आतंकवादी हमलों के बाद खुफिया एजेंसियों की कार्यप्रणाली पर पहले भी सवाल उठते रहे हैं और अब भी उठ रहे हैं। इस कार्य में लगी सभी एजेंसियों के बीच आपसी समन्वय बढ़ाने और श्रेय लेने की होड़ को खत्म करने की जरूरत है। इन एजेंसियों की ओर से अपना दायरा बढ़ाने की भी तत्काल जरूरत है। आरोप लगते रहे हैं कि इन खुफिया एजेंसियों का सत्तारुढ़ दल विपक्षियों पर नजर रखने में उपयोग करते रहे हैं, यदि यह सही है तो यह चलन खत्म किया जाना चाहिए और उन्हें वही काम करने देना चाहिए जिसके लिए उनकी स्थापना हुई है।

दूसरी ओर गृहमंत्री पी. चिदम्बरम हर माह के आखिर में भले अपने मंत्रालय के कामकाज का ब्यौरा प्रस्तुत कर अन्य मंत्रियों की अपेक्षा ज्यादा पारदर्शी लगते हों लेकिन उनके कार्यकाल में पुणे, मडगांव, वाराणसी, मुंबई और दिल्ली में हुए धमाके (यहां उत्तर पूर्व में हुए कुछ धमाकों का उल्लेख नहीं है क्योंकि उनकी गूंज शायद सरकार के कानों में पड़ती ही नहीं है), उनके इन दावों की पोल खोलने के लिए काफी हैं कि ‘आतंकवाद से निपटने के लिए कड़े कदम उठाये गये हैं’। चिदंबरम को चाहिए कि वह गृहमंत्री के रूप में अपनी सारी ऊर्जा राजनीतिक प्रतिद्वंद्वियों पर ही नहीं खर्च करें। उन्होंने विस्फोट के बाद संसद में जो बयान दिया उसमें भी कोई नयी बात नहीं थी। उन्होंने घटना की जो जानकारी दी वह टीवी चैनलों पर पहले से दिखायी जा रही थी, उन्होंने कहा कि दिल्ली आतंकवाद के निशाने पर है, यह बात सभी जानते हैं। उन्होंने कहा कि आतंकवाद के खिलाफ एकजुट होना चाहिए, यह रटारटाया बयान है। संतोष इस बात का है कि उन्होंने मुंबई में हुए धमाकों के बाद दिल्ली में वह बयान नहीं दोहराया कि हम इतने समय तक शहर को विस्फोटों से बचाये रखने में सफल रहे।

जिस आतंकी संगठन हूजी ने दिल्ली में धमाके की जिम्मेदारी ली है उसकी ओर से कथित रूप से यह कहा गया है कि उसने संसद पर हमले के दोषी अफजल गुरु की रिहाई की मांग के लिये यह कदम उठाया है। यदि यह सही है तो इससे सरकार को चेतना चाहिए कि अफजल और कसाब जैसे कुख्यात आतंकवादियों को और पालना देश के लिए घातक हो सकता है। आतंकवादी अपने साथियों को छुड़ाने के लिए फिर कोई कंधार कांड या विस्फोटों को अंजाम दे सकते हैं। दिल्ली उच्च न्यायालय के बाहर विस्फोट कर आतंकवादियों ने अदालतों को भी यह संदेश देने की कोशिश की है कि वह आतंकी मामलों के दौरान फैसले सुनाते समय उनका भय ध्यान में रखें। लेकिन भारत की न्यायपालिका को वह शायद जानते नहीं जोकि निर्भय तथा बिना किसी दबाव में आकर पूरी निष्पक्षता के साथ फैसले सुनाती है।

यह आंकड़ा चौंकाने के साथ दुखद भी है कि पिछले छह वर्षों में आतंकवादियों ने दिल्ली को पांच बार निशाना बनाया, जबकि देश की वाणिज्यिक राजधानी मुम्बई को 1993 के बाद से 14 बार निशाना बनाया गया है। सरकार को चाहिए कि आगे ऐसी घटनाएं न दोहरायी जा सकें इसके लिए सुरक्षा और खुफिया तंत्र को मजबूत करने के साथ ही अपनी राजनीतिक इच्छाशक्ति को भी दृढ़ बनाये और एक कड़ा आतंकवाद निरोधक कानून बनाकर इसके लिए विशेष अदालतें स्थापित करे। सरकार को इस पर भी गौर करना चाहिए कि जहां आतंकवादी तकनीक के मामले में हमसे आगे निकलते जा रहे हैं वहीं हम विभिन्न विभागों को सीसीटीवी कैमरा स्थापित करने के लिए पत्र लिखने में ही व्यस्त हैं।

जय हिंद, जय हिंदी

नीरज कुमार दुबे

Monday 5 September, 2011

आतंकवादियों को नहीं देश को बचाइये


आतंकवाद के ‘रंग’ को लेकर हुई सियासत के बाद अब आतंकवादियों को सुनाई गयी सजा को लेकर राजनीति शुरू हो गयी है। यह वाकई दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति है जिसमें कि जनभावनाओं का हवाला देते हुए उन आतंकवादियों को बचाने का प्रयास किया जा रहा है जिनकी मौत की सजा पर न सिर्फ उच्चतम न्यायालय अपनी मुहर लगा चुका है बल्कि राष्ट्रपति भी उनकी दया याचिका खारिज कर चुकी हैं।

तमिलनाडु विधानसभा की ओर से पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी के हत्यारों को फांसी नहीं देने का सर्वसम्मति से पास किया गया प्रस्ताव भानुमति का पिटारा खोल देने जैसा है। राज्य विधानसभा के इस कदम के बाद विभिन्न राज्यों में पार्टियां अपने चुनावी फायदे को देखते हुए ऐसे ही खतरनाक खेल खेल सकती हैं। इसकी शुरुआत हो भी गयी है। तमिलनाडु विधानसभा के प्रस्ताव के बाद जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला ने ट्वीट किया कि यदि जम्मू-कश्मीर विधानसभा अफजल गुरु को माफी के संबंध में प्रस्ताव पास करती तो क्या प्रतिक्रिया होती? इससे पहले देवेंद्र पाल सिंह भुल्लर को माफी दिलाने के लिए पंजाब के सभी पार्टियों के नेता एक हो ही चुके हैं।

गौरतलब है कि देश में कई ऐसे मुजरिम या आतंकवादी हैं जिन्हें मौत की सजा सुनाई गयी है। अब जो सिलसिला शुरू हुआ है उससे संभव है कि जिस जिस की सजा की तारीख नजदीक आती जायेगी उसके पक्ष में अपना चुनावी नफा नुकसान देख राजनीतिक पार्टियां उसके पक्ष में खड़ी होती रहेंगी। तमिलनाडु विधानसभा द्वारा शुरू किया गया यह सिलसिला चल निकला तो यकीनन आतंकवाद के खिलाफ कड़ा संदेश देने के हमारे प्रयासों को क्षति ही पहुंचेगी।
आखिर यह राजनीति नहीं तो और क्या है कि तमिलनाडु की मुख्यमंत्री जयललिता ने राजीव गांधी के हत्यारों की सजा के मामले पर पहले तो कहा कि राष्ट्रपति के आदेश में संशोधन करने का उनके पास कोई अधिकार नहीं है लेकिन जब उनके कट्टर प्रतिद्वंद्वी करुणानिधि ने राजीव के हत्यारों की मौत की सजा को रद्द करने की वकालत करते हुए कहा कि यदि उन्हें छोड़ दिया जाता है तो तमिल लोग खुश होंगे तो जयललिता ने एकाएक पैंतरा बदल लिया और अगले ही दिन विधानसभा में सर्वसम्मति से एक प्रस्ताव पारित करा दिया जिसमें दोषियों की फांसी की सजा को माफ करने का आग्रह किया गया। यही नहीं राज्य के कई अन्य पार्टियों के नेता भी इस मामले से संभावित चुनावी लाभ का आकलन करते हुए मैदान में कूद पड़े। वाइको तो अदालत पहुंच गये और वरिष्ठ अधिवक्ता राम जेठमलानी के तर्कों की बदौलत दोषियों की सजा को आठ सप्ताह तक टलवाने में सफल भी रहे। श्रीलंका के भी कुछ सांसदों ने भारत के राष्ट्रपति और अन्य नेताओं को पत्र लिखकर राजीव के हत्यारों को फांसी नहीं देने की मांग कर डाली। अब तो कांग्रेस के कुछ नेता भी इसी धारा के साथ चलना लाभप्रद मान रहे हैं। मणिशंकर अय्य्ार का कहना है कि तीनों दोषियों को फांसी नहीं देनी चाहिए और उन्हें शेष जीवन जेल में बिताने देना चाहिए। यह दोहरा रवैया नहीं तो और क्या है कि एक ओर जहां राष्ट्रीय स्तर पर कांग्रेस का मत है कि कानूनी प्रक्रिया को अपना काम करने देना चाहिए वहीं राज्य स्तर पर उसके नेताओं को कानूनी प्रक्रिया में हस्तक्षेप से कोई गुरेज नहीं है। यहां दोष सिर्फ एक दल का नहीं बल्कि सभी पार्टियों का है क्योंकि हर कोई राजीव के हत्यारों को फांसी में अपना चुनावी नुकसान देख रहा है।

दूसरी ओर बात जम्मू-कश्मीर की करें तो यकीनन यह एक संवेदनशील राज्य है। यह बात जब सभी को पता है तो निश्चित रूप से वहां के मुख्यमंत्री इससे अनजान नहीं होंगे। लेकिन उनके हालिया बयान पर गौर किया जाये तो कुछ सवाल उठ खड़े होते हैं। संसद पर हमले के दोषी अफजल गुरु के संबंध में मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला ने ट्वीट किया कि क्या हो जब राज्य विधानसभा अफजल को माफी के संबंध में प्रस्ताव पास करे? अपनी इस टिप्पणी पर उन्हें सिर्फ अपने पिता के अलावा किसी अन्य राष्ट्रीय स्तर के नेता का समर्थन नहीं मिला तो इस पर आश्चर्य नहीं होना चाहिए। लेकिन उमर की टिप्पणी ने राजनीतिक गुल खिलाना तो शुरू कर ही दिया है और यह शायद उनकी टिप्पणी का ही कमाल है कि एक निर्दलीय विधायक शेख अब्दुल रशीद ने राज्य विधानसभा को एक प्रस्ताव सौंपा है जिसमें मानवीय आधार पर अफजल के लिए क्षमादान की मांग की गयी है। मान लीजिये यदि 26 सितंबर से शुरू होने वाले विधानसभा के सत्र में यह प्रस्ताव पास भले न हो लेकिन यदि इस पर सिर्फ चर्चा ही हो जाये तो क्या यह उच्चतम न्यायालय और राष्ट्रपति के आदेशों की अवमानना नहीं होगी और क्या इससे बहुत मुश्किल से शांत हुए राज्य में फिर से हालात बिगड़ सकने की संभावनाएं प्रबल नहीं होंगी? भारतीय लोकतंत्र के प्रतीक संसद पर हमले के दोषी के लिए यदि माफी की मांग की जा रही है तो कल को कोई अजमल कसाब के लिए भी माफी की अपील कर सकता है और चुनावी लाभ की संभावना देखते हुए कोई विधानसभा में इस मुद्दे पर भी प्रस्ताव ला सकता है। यह बात वाकई समझ से परे है कि कुछ समय पूर्व तक अलगाववादियों के खिलाफ कड़ा रुख रखने वाले उमर के सुर अब उन (हुर्रियत नेताओं) जैसे क्यों होते जा रहे हैं।

तीसरी स्थिति पंजाब की है जोकि बड़ी मुश्किल से आतंकवाद के साये से बाहर निकला था। वहां के नेताओं को चाहिए कि वह इस मुद्दे पर अपना रुख लगातार कड़ा बनाये रखें लेकिन हो इसका उलटा रहा है। फांसी की सजा सुनाये गये देवेंद्र पाल सिंह भुल्लर को माफी देने के पक्ष में जब पंजाब कांग्रेस अध्यक्ष कैप्टन अमरिंदर सिंह खड़े हुए तो मुख्यमंत्री प्रकाश सिंह बादल ने अपने प्रतिद्वंद्वी पर हावी होने के लिए प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को पत्र लिख कर भुल्लर को माफी देने की मांग कर डाली। हाल के घटनाक्रमों के बाद संभव है कि किसी कट्टरपंथी धड़े से जुड़ा कोई विधायक भुल्लर की माफी के लिए भी प्रस्ताव पेश कर दे। पंजाब में विधानसभा चुनाव निकट हैं इसलिए कोई भी दल नहीं चाहेगा कि वह कथित जनभावनाओं के विपरीत जाये या फिर उसे किसी वर्ग का विरोध झेलना पड़े।

इन सभी घटनाक्रमों पर गौर के बाद यहां सवाल यह खड़ा होता है कि आतंकवादियों को माफी के लिए जिन जनभावनाओं का हवाला दिया जा रहा है उसका कथित आंकड़ा राजनीतिक दलों के पास कहां से आया? क्या कोई सर्वेक्षण कराया गया है अथवा कोई जनमत संग्रह? जनता हमेशा से आतंकवादियों और अपराधियों के साथ कड़ाई से निबटने की प्रबल पक्षधर रही है, यह सिर्फ राजनीतिक दल ही हैं जो अपने लाभ के लिये जनभावनाओं का झूठा हवाला देते रहे हैं। जनता को चाहिए कि वह राजनीतिक दलों की ओर से कथित जनभावनाओं की आड़ लेकर राजनीतिक रोटियां सेंके जाने पर सवाल उठाये और अपना मत भी बेहिचक उजागर करे। देश के न्यायालयों की ओर से सुनाये गये फैसलों का पालन कराना भले प्रशासन की जिम्मेदारी हो लेकिन इन फैसलों के साथ खड़े होना जनता का भी कर्तव्य है।

बहरहाल, जहां तक बात मौत की सजा के नैतिक पक्ष की है तो यह सही है कि दुनिया भर में इसका प्रचलन कम हो रहा है और मीडिया रिपोर्टों के आंकड़ों के मुताबिक 139 देश फांसी की सजा को हटा चुके हैं। अपने देश में भी फांसी की सजा को खत्म करने की बहस वर्षों से चल रही है लेकिन किसी तार्किक अंजाम तक नहीं पहुंच पायी है। जब तक इस मामले में कोई एकराय नहीं बन जाती तब तक जघन्य अपराधों, कांडों में शामिल लोगों की सजा पर कोई राजनीति नहीं होनी चाहिए क्योंकि इससे सिर्फ आतंकवादियों और अपराधियों का हौसला ही बुलंद होगा क्योंकि उन्हें पता है कि पहले तो मुकदमा वर्षों तक चलेगा और जब सजा सुना भी दी जायेगी तो राजनीतिक कारणों से इसमें विलंब होता रहेगा।

जय हिंद, जय हिंदी

नीरज कुमार दुबे

Monday 29 August, 2011

अन्नागिरी की बजाय विभीषणगिरी कर रहे थे अग्निवेश







स्वामी अग्निवेश हालांकि सामाजिक कार्यकर्ता हैं लेकिन राजनीति में उनकी दिलचस्पी बनी हुई है। खुले तौर पर वह भले इसे न स्वीकारें लेकिन हाल फिलहाल में कई ऐसे घटनाक्रम हुए जिसमें वह सामाजिक की बजाय राजनीतिक कार्यकर्ता की भूमिका में ज्यादा दिखे। और यही बात उन्हें विवादित बनाती है। सरकार की ओर से बातचीत के लिए मध्यस्थ होना कोई बुरी बात नहीं लेकिन इसे स्वीकारा जाना चाहिए। गुप्त तरीके से किसी समूह में शामिल होना और वहां की बात दूसरे पक्ष तक पहुंचाना सभ्य संस्कृति नहीं है। किसी भी समूह के सदस्यों में मतभेद होना स्वाभाविक है लेकिन इसे लेकर रवैया स्पष्ट होना चाहिए। जैसे कि संतोष हेगड़े ने हजारे से कुछ बातों पर अपने मतभेद को जगजाहिर किया था लेकिन उन्होंने कोई बात इधर की उधर नहीं की।

एक तरह जहां देश में गांधीवादी कार्यकर्ता अन्ना हजारे के जन लोकपाल विधेयक पर सरकार से अपनी कुछ मांगें मनवाने में सफल रहने का जश्न मनाया जा रहा है तो वहीं दूसरी ओर हजारे पक्ष इस बात की समीक्षा में जुटा है कि उसके आंदोलन को पलीता लगाने के प्रयास किस किस ने किये। इस कड़ी में स्वामी अग्निवेश का नाम उभर कर आया है जिनका एक कथित वीडियो यूट्यूब पर डाला गया है। इस वीडियो के जारी होने के बाद अग्निवेश पर आरोप लगाया जा रहा है कि उन्होंने अन्ना हजारे पक्ष का हिस्सा होने के बावजूद वहां की सूचनायें सरकार को लीक कीं और सरकार के एजेंट के रूप में काम किया। वीडियो की विषय सामग्री से अग्निवेश भी इत्तेफाक रखते हैं लेकिन वह कहते हैं कि इस वीडियो में मैं जिस कपिल जी से बात कर रहा हूं वह केंद्रीय मंत्री कपिल सिब्बल नहीं बल्कि हरिद्वार के प्रसिद्ध कपिल मुनि महाराज हैं। हालांकि जब टीवी समाचार चैनलों के कैमरा कपिल मुनि महाराज तक पहुंचे तो उन्होंने पिछले एक वर्ष से अग्निवेश से बात नहीं होने की जानकारी देते हुए यह भी बताया कि हरिद्वार में और कोई कपिल मुनि महाराज नहीं है।

अब सवाल यह उठता है कि क्या अग्निवेश झूठ बोल रहे हैं। यदि हां तो क्यों? वह जिन कपिल जी से बात कर रहे थे उनसे इस वीडियो में कह रहे थे कि सरकार को इस कदर झुकना नहीं चाहिये। वीडियो में उन्हें कथित रूप से हजारे पक्ष को पागल हाथी की संज्ञा देते हुए दिखाया गया है। वीडियो में वह कपिल जी से यह भी कह रहे हैं कि सरकार को सख्ती दिखानी चाहिए ताकि कोई संसद पर दबाव नहीं बना सके। यदि यह सब वाकई सही है तो यह सरासर धोखेबाजी ही कही जायेगी।

अग्निवेश पर सरकार के एजेंट होने के आरोप पहले से भी लगते रहे हैं। यही कारण रहा कि इस बार हजारे पक्ष ने उनसे दूरी बनाना सही समझा। पिछली बार जब अप्रैल में हजारे अनशन पर बैठे थे उस समय सरकार से समझौता कराने में अग्निवेश सबसे आगे थे। हजारे पक्ष को उस समय यह महसूस हुआ कि सरकार ने उसे धोखा दिया है और सरकार की बात मानने की उन्होंने जल्दी दिखाई। यही कारण रहा कि इस बार सरकार को झुकने के लिए मजबूर कर दिया गया और हजारे पक्ष ने अग्निवेश की एक नहीं सुनी। यही नहीं हजारे के अप्रैल के आंदोलन के बाद जब लोकपाल विधेयक का प्रारूप तैयार करने के लिए संयुक्त समिति बनाई गई तो उसमें शामिल होने के लिए अग्निवेश ने काफी हाथ पैर मारे लेकिन उन्हें सफलता नहीं मिली।

जब हजारे ने 16 अगस्त से अनशन पर बैठने का फैसला किया तो शुरू में ही अग्निवेश ने हजारे के इस फैसले की आलोचना की थी। हजारे ने जब गिरफ्तारी दी तो अग्निवेश परिदृश्य से गायब रहे लेकिन जब उनकी रिहाई का फैसला आया तो वह तिहाड़ जेल के बाहर नजर आये। रामलीला मैदान भी वह पहुंचे लेकिन जब अन्ना की कोर समिति ने उन्हें भेदिया समझते हुए किनारे कर दिया तो वह नाराज हो गये। बताया गया कि वह सरकार से वार्ता करने वाले दल का सदस्य बनना चाहते थे और सरकार की ओर से भी ऐसी इच्छा जताई गयी थी लेकिन पूर्व के अनुभवों को देखते हुए अन्ना हजारे पक्ष ने अग्निवेश से दूरी बनाना श्रेयस्कर समझा।

अब जो वीडियो सामने आया है उसके बारे में अग्निवेश यह तो स्वीकार कर रहे हैं कि उन्होंने यह बात कही थी कि संसद के कहने के बाद हजारे का अपना आंदोलन समाप्त करना चाहिए था। हालांक उनका यह भी कहना है कि उन्होंने पागल हाथी की बात नहीं कही और इस वीडियो में कांटछांट की गयी है। संभव है उनकी बात सही हो लेकिन वह वीडियो में दिखायी गयी सामग्री में से जितनी भी बात स्वीकार कर रहे हैं उतनी ही बात उन्हें घर का भेदी साबित करने के लिए काफी है। तभी तो हजारे की करीबी सहयोगी किरण बेदी ने अग्निवेश को धोखेबाज तक कह दिया है और उनसे पूरे मामले पर सफाई मांगी है।

यह अग्निवेश के लिए वाकई मुश्किल वाली बात ही कही जायेगी कि उन पर आरोप लगाते हुए आर्य समाज के प्रतिनिधियों ने भी उन्हें धोखेबाज कहा है और हजारे पक्ष को उनसे सावधान रहने की सलाह दी है। लेकिन शायद इन सब बातों से अग्निवेश पर कोई फर्क पड़ता नहीं है। पूर्व में भी उनको कई बार घेरा गया है लेकिन उन्हें ऐसी स्थितियों से निबटना भलीभांति आता है।

बहरहाल, इस प्रकरण के बाद यह सवाल उठने लाजिमी हैं कि अग्निवेश किसी मामले में तभी क्यों दखल देते हैं जब सरकार की किसी से बात हो रही हो। यह वार्ता चाहे माओवादियों के साथ हो, किसी आंदोलनकारी के साथ हो या फिर किसी अन्य के साथ। कुछ दिनों पहले एक वीडियो में माओवादियों के बीच लाल सलाम के नारे लगाते दिखाये गये अग्निवेश अपने नये वीडियो पर जो स्पष्टीकरण दे रहे हैं उससे हजारे पक्ष संतुष्ट होगा या नहीं यह देखने वाली बात होगी। लेकिन इतना तो तय है ही कि अनशन के समय टीम अन्ना पर उन्होंने जो हमले किये उसका जवाब अनशन की सफलता से गदगद टीम अन्ना जरूर देगी।


जय हिंद, जय हिंदी


नीरज कुमार दुबे

Thursday 14 July, 2011

श्रृंखलाबद्ध विस्फोटों ने खोली पुख्ता सुरक्षा प्रबंधों की पोल



आतंकवादियों की ओर से भारत की आर्थिक राजधानी मुम्बई को पुनः दहलाने में सफल होने से हमारी सुरक्षा व्यवस्था पर फिर से सवाल खड़े हो गये हैं। आतंकवादियों ने शहर के भीड़भाड़ वाले झावेरी बाजार, दादर तथा चरनी रोड़ के ओपरा हाउस में सिलसिलेवार विस्फोटों के जरिए 26/11 के आतंकवादी हमले की यादों को ताजा तो कराया ही साथ ही इस बात का संकेत भी दे दिया कि सुरक्षा के तमाम दावों के बावजूद वह अपने कार्यों को अंजाम देने में पूरी तरह सक्षम हैं। आज गृहमंत्री चिदम्बरम कह रहे हैं कि मुंबई में हुए हमले के बारे में किसी प्रकार की विश्वसनीय खुफिया जानकारी नहीं थी। वह इसे केंद्रीय और प्रदेश की एजेंसियों की खुफिया असफलता भी नहीं मान रहे हैं लेकिन मुंबई पुलिस ने विस्फोटों से एक दिन पहले ही इंडियन मुजाहिदीन के जिन दो संदिग्ध आतंकवादियों को गिरफ्तार किया था, उससे लगता तो यही है कि कहीं न कहीं पुलिस और सरकार को खुफिया सूचना तो थी ही। इसके अलावा ऐसी भी खबरें आई हैं कि अमेरिकी खुफिया एजेंसी सीआईए ने विस्फोटों से चंद घंटे पहले ही भारत को मुंबई समेत कुछ शहरों में संभावित आतंकी हमले की चेतावनी दे दी थी। यदि यह रिपोर्टें सही हैं तो निश्चित ही यह सरकार की ढिलाई का एक बड़ा उदाहरण कहा जाएगा।


इसके अलावा विस्फोटों के बाद जिस तरह घायलों को अस्पताल ले जाने के लिए एम्बुलेंसें देर से पहुंचीं और अस्पतालों में अव्यवस्था का आलम रहा वह हमारी आपदा प्रबंधन तैयारियों की भी पोल खोलता है। रिपोर्टों के मुताबिक इससे पहले कि एंबुलेंसे घटनास्थल पर पहुंचतीं, लोगों ने ही कई घायलों को स्कूटरों, कारों इत्यादि में बैठाकर अस्पताल तक पहुंचाया। इसके अलावा जिन अस्पतालों में घायलों का इलाज चल रहा है, वहां देर रात तक घायलों और मृतकों के नामों की कोई सूची तक नहीं थी, सारे दरवाजे बंद करे देने के कारण पीडि़तों के परिजनों तक जरूरी सूचनाएं नहीं पहुंच पा रही थीं।

दूसरी ओर, विस्फोटों के समय पर गौर करते हुए यह कहा जा सकता है कि यह एक बहुत बड़ी सुनियोजित साजिश थी। 26/11 के मुंबई हमलों में दोषी करार दिये गये आतंकवादी अजमल कसाब के 24वें जन्मदिन और भारत पाक विदेश मंत्री वार्ता से 11 दिन पहले अंजाम दिये गये यह विस्फोट भारत पाक वार्ता को पटरी से उतारने के प्रयास भी हो सकते हैं। ऐबटाबाद में ओसामा बिन लादेन के मारे जाने के बाद अपने ही स्थानीय आतंकवादी संगठनों के निशाने पर आए पाकिस्तान को भारत की ओर से भी घेरने के लिए भी यह कवायद की गई हो सकती है। इन विस्फोटों के पीछे भले अब तक पाकिस्तानी हाथ की बात साफ न हुई हो लेकिन इतना तो सभी जानते हैं कि जिन्होंने भी इन विस्फोटों को अंजाम दिया है उन्हें फंडिंग कहां से हो रही है।


जहां तक हमारी सुरक्षा व्यवस्था का सवाल है तो यह हैरानी वाली बात है कि जिस झावेरी बाजार को आतंकवादी तीन बार निशाना बना चुके हैं वहां सुरक्षा के पुख्ता प्रबंध क्यों नहीं किये गये। अब मुंबई में विस्फोटों के बाद देश भर में अलर्ट कर दिया गया है और जगह जगह लोगों की तलाशी ली जा रही है। यह कवायद ज्यादा से ज्यादा सप्ताह भर चलेगी उसके बाद सब फिर ढीले पड़ जाएंगे और इसी ढिलाई का फायदा फिर से आतंकी उठाएंगे और निर्दोष लोगों को अपना शिकार बनाएंगे। विस्फोटों के बाद सरकार ने मुआवजा घोषित कर दिया है और दोषियों को न्याय के कठघरे में लाने का वादा किया है। लेकिन यहां सवाल यह है कि क्या पिछली बार के हमलों में न्याय के कठघरे में लाए गए लोग दोषी साबित होने और सजा सुनाए जाने के बावजूद सजा से अब तक क्यों ‘वंचित’ रखे गये हैं? निश्चित ही इन सबसे आतंकवाद के खिलाफ हमारी लड़ाई कमजोर होती है। सिर्फ आतंकवाद के खिलाफ एकजुट होने और मिलजुलकर इससे लड़ने के आह्वान भर से आतंकवाद का मुकाबला नहीं किया जा सकता इसके लिए ठोस कदम उठाने की जरूरत है।


यह भी आश्चर्यजनक है कि 26/11 हमले के बाद देश में अब तक जो दो आतंकी हमले हुए हैं वह महाराष्ट्र में ही हुए। पहला पुणे के जर्मन बेकरी में और अब दूसरा मुंबई में। निश्चित ही आतंकवादी संगठन जानते हैं कि भारत की वाणिज्यिक राजधानी मुंबई और साम्प्रदायिक रूप से संवेदनशील राज्य महाराष्ट्र में हमला कर देश भर में तनाव पैदा किया जा सकता है, आर्थिक तरक्की की राह में बाधा डाली जा सकती है, विदेशी पर्यटकों का मोहभंग किया जा सकता है, सरकार को विपक्ष और जनता के सीधे निशाने पर लाया जा सकता है और विश्व भर में एक ‘संदेश’ दिया जा सकता है।


बहरहाल, विस्फोटों में मारे गए लोगों को भगवान अपने चरणों में स्थान प्रदान करे, उनके परिजनों को यह दुःख सहन करने की शक्ति प्रदान करे, यही हर भारतवासी को प्रार्थना करनी चाहिए। साथ ही सभी को सतर्क और एकजुट रहना चाहिए क्योंकि अपने सुरक्षा बलों की सक्षमता पर पूरा विश्वास होने के बावजूद यह बात हर बार साबित हो चुकी है कि आतंकी कहीं भी हमला करने में सक्षम हैं। अब समय है कि इसी माह भारत और अमेरिका तथा भारत और पाकिस्तान के बीच होने वाली रणनीतिक और विदेश मंत्री स्तरीय वार्ता में आतंकवाद से मुकाबले और सीमा पार से आतंकवाद को बढ़ावा देने का मुद्दा शीर्षस्थ प्राथमिकता पर हो। हमलावरों, उनके समर्थकों, संरक्षकों और उनको कोष उपलब्ध कराने वालों का पता लगाया जाना चाहिए और जो भी लोग निर्दोष जनता की सामूहिक हत्याओं में शामिल हैं उन्हें कड़ा सबक सिखाया जाना चाहिए। वैसे यह खुशी की बात है कि मुंबईवालों का हौसला डिगा नहीं है। उनके इस जज्बे को सलाम किया जाना चाहिए।


जय हिन्द, जय हिन्दी

नीरज कुमार दुबे

Monday 9 May, 2011

ओसामा को सम्मान देने से आखिर क्या फायदा होगा दिग्विजय जी




कभी कथित ‘भगवा आतंकवाद’ का भय दिखाकर तो कभी आतंकवाद की घटना के बहाने राजनीतिक लाभ उठाने वाले कांग्रेस महासचिव दिग्विजय सिंह की ओर से अल कायदा प्रमुख को ‘ओसामा जी’ कह कर पुकारा जाना हो या फिर ओसामा बिन लादेन को समुद्र में दफनाए जाने का विरोध करना हो, दोनों ही बेहद आपत्तिजनक बाते हैं। लेकिन वोट बैंक की राजनीति के इस दौर में सही या गलत की परवाह किसे है। यह वोट बैंक की राजनीति और साम्प्रदायिकता नहीं तो और क्या है कि हमारे नेता यह सोचते हैं कि लादेन के साथ जो हश्र हुआ उसको सही ठहराने से कहीं एक वर्ग की भावनाओं को ठेस नहीं पहुंचे। लेकिन वह भूल जाते हैं कि लादेन का किसी धर्म से वास्ता नहीं था वह सिर्फ अमेरिका का ही नहीं बल्कि इंसानियत का भी दुश्मन था और उसके द्वारा संचालित हमलों में मुस्लिम सिर्फ मारे ही नहीं गये बल्कि लादेन और उसके संगठन के कार्यों की बदौलत विश्व भर में संदिग्ध नजरों से देखे भी गये। ऐसा व्यक्ति जो अपनी कौम का ही दुश्मन बन गया हो उसके मारे जाने पर शोक कैसा? उसे सम्मानजनक तरीके से संबोधित कर यह कल्पना करना कि इससे किसी वर्ग को लुभाया जा सकेगा, बेकार की बात है।

दिग्विजय सिंह के इन बयानों से कांग्रेस पार्टी ने दूरी बनाकर सही किया क्योंकि पार्टी पर पहले ही आतंकवाद के खिलाफ कार्रवाई में ढिलाई बरतने और दोषियों की सजा पर कार्रवाई में देरी करने जैसे आरोप लगते रहे हैं। खबरों में कहा गया कि कांग्रेस ने इस विषय पर दिग्विजय सिंह को तलब भी किया है लेकिन खुद दिग्विजय ने ऐसी किसी बात से इंकार किया। दिग्विजय को यह देखना चाहिए कि उनके इस कदम ने उनको किन लोगों के साथ और किस श्रेणी में खड़ा किया। जहां एक ओर दिग्विजय लादेन को ‘ओसामा जी’ कह कर संबोधित कर रहे थे तो दूसरी ओर हुर्रियत कांफ्रेंस के उग्रपंथी गुट के सैय्द अली शाह गिलानी थे जो लादेन के लिय्ो जनाजे की नमाज का आह्वान कर रहे थे। तीसरी ओर कोलकाता की स्थानीय् टीपू सुल्तान मस्जिद के शाही इमाम मौलाना नूरूर रहमान बरकती थे, जिन्होंने लादेन की ‘‘आत्मा की शांति‘‘ के लिए विशेष नमाज अदा की तो चैथी ओर केरल का वह व्यक्ति अथवा संगठन था, जिसकी ओर से ओसामा के मारे जाने के खिलाफ पर्चे बंटवाने की खबर आई। इससे पहले चुनावों के समय एक बार बिहार में लोक जनशक्ति पार्टी के अध्यक्ष रामविलास पासवान की रैली में एक शख्स ओसामा के वेष में लोगों को आकर्षित करने का प्रयास कर रहा था।

पार्टी की कथित दोगली नीतियों के चलते दूर हुए मुस्लिम मतदाताओं को वापस कांग्रेस से जोड़ने के प्रयास में दिग्विजय सिंह जब तब कोई न कोई तीर छोड़ते रहते हैं। इससे पहले उन्होंने दिल्ली में हुए विस्फोटों के बाद हुए बाटला मुठभेड़ कांड पर सवाल उठाते हुए आजमगढ़ का दौरा किया था। हालांकि उस समय दिग्विजय ने यही कहा था कि वह सच्चाई का पता लगाने के लिए इलाके का दौरा कर रहे हैं। इस संबंध में उन्होंने कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी को रिपोर्ट भी सौंपी थी लेकिन जब सरकार, मानवाधिकार आयोग जैसे संस्थान मुठभेड़ को सही ठहरा चुके हों तो किसी पार्टी महासचिव की रिपोर्ट का कोई औचित्य नहीं रह जाता। इस मामले में भी दिग्विजय पर वोट बैंक की राजनीति करने के आरोप लगे थे। यही नहीं उन्होंने तो मुंबई हमले के दौरान हेमंत करकरे की शहादत पर भी एक तरह से सवाल उठाया था जब उन्होंने यह कहा था कि करकरे ने उन्हें फोन कर बताया था कि वह मालेगांव धमाके की जांच के सिलसिले में संघ परिवार के निशाने पर हैं।

दिग्विजय की हालिया कथित उपलब्धियों की बात की जाए तो उनके हिस्से में ‘भगवा आतंकवाद’ शब्द को प्रचलित कराने का श्रेय भी है। साथ ही वह इस बात के लिए भी विख्यात हैं कि पार्टी संगठन में राज्यों के प्रभारी मात्र होने के बावजूद राष्ट्रीय, अंतरराष्ट्रीय और अन्य विषयों पर भी खूब बोलते हैं। दूसरों की संपत्ति की जांच की मांग करना उनका प्रिय शगल है तो साथ ही अपने पर हमला बोलने वाले पर तेजी से आक्रामक होना उनकी विशेष रणनीति है। बहरहाल, ओसामा को सम्मानपूर्वक संबोधन से पूर्व दिग्विजय जी को उन परिवारों या पीडि़तों के हाल पर नजर दौड़ा लेनी चाहिए थी जो विश्व भर में ओसामा की आतंकी गतिविधियों के शिकार हुए।

जय हिंद, जय हिंदी


नीरज कुमार दुबे

Monday 2 May, 2011

आखिरकार आतंकवाद की जन्मस्थली में मारा गया ओसामा बिन लादेन



आखिरकार दुनिया के नंबर एक आतंकवादी अल कायदा सरगना ओसामा बिन लादेन को दुनिया के नंबर एक देश ने मार गिराया। अपने को बहुत बड़ा बहादुर बताने और समझने वाला ओसामा कितना बहादुर था यह दुनिया ने तब देख ही लिया जब वह डर के मारे एक गुफा से दूसरी गुफा में छिपता फिर रहा था। शायद ओसामा ने अपने हिसाब वाले कोई सदकर्म ही किये होंगे जो वह आतंकवाद की जन्मस्थली पाकिस्तान में मारा गया। ओसामा का मारा जाना आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई में एक बहुत बड़ी कामयाबी है तो है ही साथ ही यह आतंकवाद के प्रतीक पर सबसे बड़ा हमला भी है। जिस तरह भले राजा बूढ़ा हो लेकिन उसके मारे जाने पर भी प्रजा को गुलाम बनना ही पड़ता है उसी तरह आतंकवाद के सबसे बड़े सरगना के मारे जाने पर निश्चित रूप से आतंकवादियों और आतंकवाद के समर्थकों का मनोबल गिरेगा। हालांकि संभावना यह भी है कि वह अपना हौसला पस्त नहीं होने का सुबूत देते हुए विश्व में कहीं भी आतंकवादी वारदात को अंजाम दें। अल कायदा, तालिबान और लश्कर ए तैयबा जैसे आतंकवादी संगठनों के स्लीपर सेलों की बातें समय समय पर खुफिया एजेंसियां सामने लाती रही हैं। संभव है कि इन्हीं स्लीपर सेलों के माध्यम से किसी वारदात को अंजाम दिया जाए। हमें हाल ही में उजागर हुई अल कायदा की उस चेतावनी को नहीं भूलना चाहिए जिसमें उसने अल कायदा प्रमुख के मारे जाने पर पश्चिम तथा यूरोप पर परमाणु बम हमले की धमकी दी थी। लादेन के मारे जाने से निश्चित रूप से अमेरिका विरोध की भावना अब आतंकवादियों के मन में प्रबल होगी और अमेरिकी नागरिक, अमेरिकी प्रतिष्ठान आदि को सतर्कता बरते जाने की जरूरत है, शायद इसी बात को ध्यान में रखते हुए अमेरिका ने विश्व भर में अपने नागरिकों के लिये यात्रा परामर्श जारी किया है।

लादेन का पाकिस्तान में पकड़ा जाना और मारा जाना पाकिस्तान सरकार के उन दावों को भी झूठा साबित करता है कि लादेन पाकिस्तान में नहीं है या फिर लादेन मारा जा चुका है। पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी आईएसआई और सरकार समय समय पर यही बात दोहराते रहे हैं कि लादेन पाकिस्तान में नहीं है। यही नहीं पूर्व राष्ट्रपति परवेज मुशर्रफ और वर्तमान राष्ट्रपति तो यहां तक कह चुके हैं कि उन्हें लगता है कि लादेन मर चुका है। लादेन की अनुपस्थिति और उसके मारे जाने की झूठी बात को बार बार कह कर पाकिस्तान ने इसे सच बनाने की कोशिश की लेकिन आखिरकार पाकिस्तान का असली चेहरा सबके सामने आ ही गया। यह तो बहुत ही अच्छा हुआ कि अमेरिका ने लादेन पर कार्रवाई की बात पाकिस्तान सरकार के साथ साझा नहीं की वरना वह उसे वहां से भगा देती। गौरतलब है कि लादेन के मारे जाने के बाद ही अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने जरदारी को इस बारे में जानकारी दी। आईएसआई प्रमुख शुजा पाशा ने भी हाल ही में अपने अमेरिकी दौरे के समय इस बात के भरसक प्रयास किये कि अमेरिका पाक में ड्रोन हमलों को रोक दे लेकिन अमेरिका जानता था कि पाकिस्तान यह निवेदन क्यों कर रहा है।

अब अमेरिका को यह बात समझनी चाहिए कि कैसे पाकिस्तान उसे कई वर्षों से ओसामा की मौजूदगी के बारे में गुमराह करता रहा जबकि पाकिस्तान से उसे सुरक्षित तरीके से छिपा रखा था। ओसामा जहां मिला वह स्थान पाकिस्तान की राजधानी इस्लामाबाद के पास है और वह ऐसा इलाका है जहां सामान्य तौर पर सेना के शीर्ष सेवानिवृत्त अधिकारी रहते हैं। अब दुनिया के सामने पाकिस्तान का वह झूठ भी सामने आ गया है जिसमें वह दाऊद इब्राहिम और मुंबई हमले के कुछ आरोपियों की अपने यहां उपस्थिति की बात से इंकार करता रहा है।

दुनिया के सामने पाकिस्तान का सच सामने आने के बाद अब यह भारत के लिए सही समय है कि वह मुंबई हमले के दोषियों को उसे (भारत को) सौंपने के लिए दबाव बनाये और सीमा पर मौजूद आतंकवादी प्रशिक्षण शिविरों पर कार्रवाई के लिए दबाव बनाये या फिर खुद ही कार्रवाई कर इन आतंकी प्रशिक्षण शिविरों को ध्वस्त कर दे क्योंकि गर्मियां शुरू हो चुकी हैं और अब पाकिस्तान की ओर से घुसपैठ के प्रयास शुरू होंगे। भारत सरकार को पाकिस्तान से वार्ता शुरू करने की बजाय दीर्घकालीन दृष्टि से सोचना चाहिए और पाकिस्तान में मौजूद अपने लिए खतरों को खत्म करने के लिए तत्काल कार्रवाई करनी चाहिए।

हमें अमेरिका से यह बात सीखनी चाहिए कि वह अपने नागरिकों पर हमलों की बात को भूलता नहीं है और उसका बदल ले कर रहता है। 9/11 को भले दस साल हो गये हों लेकिन अमेरिकी सरकार के लिए उसके जख्म हमेशा ताजा रहे और उसने आखिरकार ओसामा को मार कर बदला ले लिया जिसके बाद ओबामा ने बयान दिया कि अमेरिका ने न्याय कर दिया है। हमारे यहां तो यदि किसी को मृत्युदंड सुना भी दिया जाता है तो भी उसे जिंदा रखा जाता है कि कहीं वोट बैंक प्रभावित न हो जाए। भारत दुनिया में आतंकवाद से सर्वाधिक पीडि़त रहा है लेकिन आतंकवाद के खिलाफ कार्रवाई में नगण्य रहा है। आज भी अफजल और अजमल कसाब को जिंदा रखा गया है। यदि उन्हें सजा सुनाए जाने के तत्काल बाद मौत के घाट उतार दिया गया होता तो आतंकवाद पीडि़तों को बड़ी राहत पहुंचती। हमारे यहां तो माओवादियों अथवा नक्सलियों के खिलाफ भी यदि सैन्य बल कोई कार्रवाई कर देते हैं तो मानवाधिकार कार्यकर्ता उसे मुद्दा बना देते हैं।

बहरहाल, हमें आतंकवाद के खिलाफ सबसे बड़ी कार्रवाई के लिए अमेरिका की सराहना तो करनी ही चाहिए साथ ही सतर्कता भी बरतनी चाहिए। हमें चाहिए कि बाजार, पर्यटन स्थलों और धर्म स्थलों पर अत्यधिक सतर्कता बरतें क्योंकि आतंकवादी तथा उन्मादी अपनी ताकत दिखाने के लिए किसी भी हिंसक वारदात को अंजाम दे सकते हैं। हमें सुरक्षा एजेंसियों की जांच के दौरान भी सहयोग देना चाहिए।

दूसरी ओर, आतंकवाद के खिलाफ मिली यह सबसे बड़ी सफलता बराक ओबामा के लिए सबसे ज्यादा राहत लेकर आई है। वह घरेलू मोर्चे पर काफी चुनौतियों से जूझ रहे थे और अगले वर्ष होने वाले राष्ट्रपति चुनावों में भी उन्हें कड़ी टक्कर मिलने की उम्मीद की जा रही थी क्योंकि विभिन्न सर्वेक्षणों में उनकी लोकप्रियता में कमी आने की बात कही गई थी। लेकिन अब ओबामा के मारे जाने के बाद ओसामा के लिए पुनः निर्वाचन की राह आसान हो गई है। हालांकि उन्हें इस सफलता का श्रेय कुछ हद तक पूर्व राष्ट्रपति जार्ज डब्ल्यू बुश को भी देना चाहिए क्योंकि उन्हीं के कार्यकाल में अफगानिस्तान और पाकिस्तान के कुछ क्षेत्रों में अमेरिकी सेना के नेतृत्व में नाटो बलों की तैनाती हुई। बुश ने आतंकवाद के खिलाफ जो आपरेशन चलाया उसे अंजाम तक ओबामा ने पहुंचाया। बुश को जहां अपने कार्यकाल में सद्दाम हुसैन मामले में सफलता मिली वहीं ओबामा को ओसामा को मारने में सफलता मिली। लेकिन इन दोनों सफलताओं में एक बहुत बड़ा फर्क यह है कि जहां आधी से ज्यादा दुनिया सद्दाम को मारे जाने की विरोधी थी वहीं समूची दुनिया ओसामा के मारे जाने से खुश है।

जय हिंद, जय हिंदी

नीरज कुमार दुबे

Monday 4 April, 2011

वस्त्र भगवा पर जुबां पे ‘लाल सलाम’! यह कैसे संत हैं अग्निवेश



प्रसिद्ध सामाजिक कार्यकर्ता स्वामी अग्निवेश पर माओवादियों और नक्सलियों के प्रति नरम रुख रखने के आरोप लगते रहे हैं। हालांकि वह इन आरोपों पर हमेशा यही कहते रहे हैं कि वह सिर्फ मानवाधिकार की बात कर रहे हैं लेकिन छत्तीसगढ़ में माओवादियों की सभा में उनके द्वारा ‘लाल सलाम’ के नारे लगाते हुए जो सीडी सामने आई है, उससे उनका दूसरा चेहरा सबके सामने आ गया है। छत्तीसगढ़ की सरकार ने तो यहां तक कह दिया है कि हम तो अग्निवेश को संत समझते थे लेकिन वह तो संत के वेष में माओवादी निकले। रिपोर्टों के मुताबिक यह सीडी 11 जनवरी 2011 को छत्तीसगढ़ के जगदलपुर के करियामेटा के पास जंगलों के बीच माओवादियों की जन अदालत की है। इस जन अदालत में ‘भारत सेना वापस जाओ’ के नारों के बीच स्वामी अग्निवेश को ‘लाल सलाम’ के नारे लगाते और ‘माओवाद’ के पक्ष में बोलते हुए दिखाया गया है। यह वही जन अदालत थी जिसमें पांच अपहृत जवानों को रिहा करने का फैसला किया गया था। इन जवानों की रिहाई के लिए अग्निवेश खुद मध्यस्थता के लिए आगे आए थे और शासन ने जवानों की जिंदगी की रिहाई के लिए अग्निवेश के प्रस्ताव को स्वीकार किया था।


यह मात्र संयोग नहीं हो सकता कि राज्य में माओवादियों की ओर से अपहरण की दो घटनाओं में अग्निवेश मध्यस्थ बने। यही नहीं उड़ीसा के एक जिलाधिकारी का माओवादियों की ओर से अपहरण हो या फिर गत वर्ष बिहार में पुलिसकर्मियों का अपहरण, सभी मामलों में अग्निवेश ने मध्यस्थता की पेशकश की या फिर मध्यस्थता की इच्छा जताई। संभव है माओवादियों के ‘पहले अपहरण करो और फिर बाद में छोड़ दो’ के खेल में वह भी प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से शामिल हों। अपहरण के बाद अपनी बात मनवाने के साथ ही अपहृत की रिहाई कर शायद माओवादी यह संदेश देना चाहते हैं कि वह आम लोगों को नहीं सताते। इसके अलावा यह भी संभव है कि माओवादियों की छवि सुधार में लगे अग्निवेश शायद मध्यस्थता के बाद अपहृतों की रिहाई करवा कर माओवादियों का ‘मानवीय’ चेहरा सामने लाना चाहते हैं। अब अग्निवेश कह रहे हैं कि वह जिस धर्म और जिस देश में जाते हैं वहां के नारे लगाते हैं और इसमें कुछ गलत नहीं है। यदि किसी धर्म अथवा किसी देश के पक्ष में नारे लगाने की अग्निवेश की बात को मान भी लिया जाए तो भी यह तो किसी दृष्टि से सही नहीं है कि आप वहां भारत का या फिर भारतीय सेना का अपमान सुनते रहें।


अपने को सामाजिक कार्यकर्ता और मानवाधिकारों का पक्षकार कहलवाने वाले अग्निवेश यदि सचमुच लोगों का हित सोच रहे होते तो पिछले सप्ताह के छत्तीसगढ़ दौरे के दौरान उन्हें जनता का भारी विरोध नहीं झेलना पड़ता। आज जनता जागरूक हो चुकी है और वह अपना अच्छा बुरा पहचानती है। अब किसी भी घटना के राजनीतिक निहितार्थ निकालने को पहुंचे लोगों को विरोध झेलना ही पड़ता है। राज्य के ताड़मेटला, मोरपल्ली और तिम्मापुर में हुई आगजनी के कारणों की पड़ताल के लिए जब अग्निवेश अपने समर्थकों के साथ प्रभावित इलाकों में पहुंचे तो लोगों ने उनका जबरदस्त विरोध किया और उनकी गाड़ी पर अंडे, टमाटर व जूते फेंके। खास बात यह रही कि अग्निवेश के खिलाफ प्रदर्शन कर रहे लोगों में महिलाओं की संख्या ज्यादा थी। सभी ग्रामीण उनसे यही पूछ रहे थे कि जब 2006 में नक्सलियों ने उनके घरों में आगजनी की थी तब वह क्यों नहीं आए? सरकार ने हालांकि अग्निवेश के साथ हुई धक्कामुक्की को गंभीरता से लेते हुए कलेक्टर और एसएसपी का तबादला कर दिया लेकिन अब राज्य के गृहमंत्री अग्निवेश की सीडी सामने आने के बाद मान रहे हैं कि संत के रूप में अग्निवेश माओवादी निकले और अब सरकार मानती है कि एसएसपी ने कहीं भी गलती नहीं की थी।


राज्य के दंतेवाड़ा जिले के ताड़मेटला, मोरपल्ली और तिम्मापुर में हुई घटनाओं के पीछे माना जा रहा है कि यह नक्सलियों और पुलिस के बीच संघर्ष के कारण हुई। ग्रामीणों के घर जलाने वालों को चिन्हित करने की बात करते हुए सरकार ने मामले की जांच के आदेश दे दिए हैं लेकिन इससे पहले उसे इस वर्ष 14 मार्च को हुई मुठभेड़ के दौरान 37 माओवादियों के मारे जाने की घटना को याद कर लेना चाहिए जिसमें माओवादियों ने जल्द ही बदला लिये जाने का ऐलान भी किया था।


बहराहाल, स्वामी अग्निवेश की सीडी मामले की जांच जारी है। मामला राजनीतिक होने के कारण शायद जांच परिणाम शीघ्र ही आ जाएं लेकिन इतना तो है ही कि पूर्व में राजनीतिज्ञ रह चुके और अब बंधुआ मुक्ति मोर्चा के प्रमुख स्वामी अग्निवेश माओवादियों का पक्ष लेकर ठीक नहीं कर रहे हैं। वह भ्रष्टाचार और काला धन के खिलाफ रैलियों या भाषणों में हिस्सा लेते हैं तो बात समझ में आती है लेकिन लोकतंत्र के खिलाफ काम कर रहे माओवादियों और नक्सलियों के पक्ष में उनका खड़ा होना उन्हें संदिग्ध बनाता है।


जय हिन्दी, जय भारत

नीरज कुमार दुबे

Tuesday 1 February, 2011

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ आतंकवादी नहीं राष्ट्रवादी संगठन है

पिछले कुछ समय से संघ परिवार को लगातार आड़े हाथ ले रहे कांग्रेस महासचिव दिग्विजय सिंह ‘भगवा आतंकवाद’ शब्द को स्थापित करने के बाद अब ‘संघी आतंकवाद’ शब्द को स्थापित करने में जी जान से जुट गये हैं इसके लिए उन्होंने 30 जनवरी 2011 को महात्मा गांधी की पुण्यतिथि के दिन बयान दिया कि संघ के आतंकवाद की शुरुआत महात्मा गांधी की हत्या से हुई। इससे दो दिन पहले ही दिग्विजय ने एक नई कहानी प्रस्तुत कर देश के विभाजन के लिए जिन्ना की बजाय सावरकर को जिम्मेदार ठहराते हुए कहा था कि ‘दो राष्ट्र’ के सिद्धांत का विचार सबसे पहले वीर सावरकर ने रखा था जिसकी वजह से देश का बंटवारा हुआ। इससे पहले दिग्विजय ने मुंबई एटीएस प्रमुख हेमंत करकरे की मौत को अप्रत्यक्ष रूप से भगवा संगठनों के साथ जोड़कर विवाद खड़ा कर दिया था और बाद में उन्होंने यह सुबूत तो दिया कि उनकी करकरे से फोन पर बात हुई लेकिन वह बात क्या थी यह साबित करने में वह विफल रहे। दरअसल इन सब बयानों के जरिए उन्होंने आतंकवाद के मुद्दे पर संघ को कठघरे में खड़ा करने की जो चाल चली थी उसमें वह काफी हद तक सफल रहे थे।

यह सब उस संघ को बदनाम करने की बड़ी साजिश का हिस्सा है जोकि प्रखर राष्ट्रवादी संगठन है और मंत्रिमंडल की विभिन्न समितियों से भी ज्यादा गहनता के साथ आंतरिक सुरक्षा, राष्ट्रीय एकता और आपसी सद्भावना जैसे विषयों पर चर्चा करता है और मुद्दों के हल की दिशा में काम करता है। लेकिन दुर्भाग्य की बात यह है कि देश या समाज पर किसी भी विपत्ति के समय उसके साथ खड़े होने वाले इस संगठन के साथ इस समय भाजपा के अलावा कोई खड़ा नहीं दिखाई दे रहा। यह बात सभी जानते हैं कि दिग्विजय संघ विरोध की जो धारा बहा रहे हैं उसके पीछे उनकी कोई बड़ी राजनीतिक मंशा है। संघ के लिए सुखद बात यह है कि आप चाहे कितने भी आॅनलाइन फोरमों पर होने वाली चर्चा को देख लीजिए, शायद ही कोई दिग्विजय की बात से इत्तेफाक रखता हो। लेकिन यह भी सही है कि संघ को वह समर्थन खुले रूप से नहीं मिल पा रहा है जिसका वह हकदार है।

संघ को घेरने की रणनीति बनाते रहने में मशगूल रहने वाले दिग्विजय की बांछें तब और खिलीं जब कुछ समय पूर्व समझौता ट्रेन विस्फोट मामले की चल रही जांच के लीक हुए अंशों में दक्षिणपंथी संगठन अभिनव भारत के नेता असीमानंद और संघ नेता इंद्रेश कुमार का नाम कथित रूप से सामने आया। इसके बाद ता दिग्विजय ने अब संघ पर हमला और तेज करते हुए आरएसएस पर देश में संघी आतंकवाद फैलाने का आरोप लगाया है। दिग्विजय ने संघ प्रमुख मोहन भागवत से पूछा है कि अगर संघ आतंकवाद नहीं फैला रहा है तो इन मामलों में पकड़े जाने वाले लोगों के तार आरएसएस से क्यों जुड़े हुए मिलते हैं? दिग्विजय ने तो भाजपा की राज्य सरकारों पर भी कथित संघी आतंकवादियों को संरक्षण देने का आरोप लगाते हुए उदाहरण दिया कि समझौता विस्फोट मामले के आरोपी असीमानंद ने गुजरात में जाकर शरण ली थी। दिग्विजय वर्षों पहले से ही संघ पर आरोप लगाते रहे हैं कि वह अपने कार्यकर्ताओं को बम बनाने का प्रशिक्षण देता है। यह सब कह कर दिग्विजय न सिर्फ आतंकवाद के मुद्दे पर पाकिस्तान का पक्ष मजबूत कर रहे हैं बल्कि एक राष्ट्रवादी संगठन को आतंकवाद के साथ जोड़कर ‘महापाप’ भी कर रहे हैं। यह पूरी कवायद आतंकवाद के खिलाफ भारत की लड़ाई से ध्यान भटकाएगी।

राजनीतिक मेधावी दिग्विजय अपने बयानों के जरिए सामंजस्य बनाने की कला भी बखूभी जानते हैं वह जहां भाजपा और संघ परिवार पर रोजाना नए तरीके से निशाना साधते हैं वहीं सरकार खासकर केंद्रीय गृह मंत्रालय को भी आड़े हाथों लेते रहते हैं। पहले उन्होंने नक्सल समस्या से निबटने की रणनीति को लेकर चिदम्बरम की कार्यशैली पर सवाल उठाए तो अब मौत की सजा पाए कैदियों की अपील पर एक समय सीमा में निर्णय करने की बात कह कर अफजल गुरु और अजमल कसाब की फांसी में जानबूझकर देरी करने के भाजपा के आरोपों को भी हवा दी। ऐसे बयानों से दिग्विजय कभी कभार खुद अपनी ही पार्टी को भी परेशानी में डाल देते हैं लेकिन वह जो ‘लक्ष्य’ लेकर चल रहे हैं उसे देखते हुए पार्टी आलाकमान भी उनके विरुद्ध सख्त रुख अख्तियार नहीं करता क्योंकि उसे पता है कि जो काम वर्षों से कोई कांग्रेस नेता नहीं कर पाया वह मात्र कुछ महीनों में दिग्विजय ने कर दिखाया है। यह कार्य है संघ को आतंकवाद से जोड़ने का। दिग्विजय अपने बयानों के जरिए संघ को संदिग्ध बना देना चाहते हैं और इसके लिए ऐसे बयान देते हैं जिससे कि लोगों का ध्यान आकर्षित हो।

बहरहाल, अब देखना यह है कि दिग्विजय की सियासत अभी और क्या गुल खिलाती है या और क्या क्या विवाद खड़े करती है लेकिन इतना तो है ही कि उन्होंने संघ के सामने कई दशकों में पहली बार कोई बड़ा संकट खड़ा कर दिया है।

जय हिन्द, जय हिन्दी

नीरज कुमार दुबे

Monday 3 January, 2011

सुरक्षा बलों पर राजनीति करने से बचिए ‘सरकार’

पश्चिम बंगाल में वामपंथियों के सशस्त्र कैडरों को निहत्था करने और केंद्रीय सुरक्षा बलों के कथित दुरुपयोग के आरोपों पर जो राजनीति शुरू हुई है वह अंततः राज्य में माओवादियों और नक्सलियों के खिलाफ लड़ाई को कमजोर कर रही है। जहां केंद्र का सारा ध्यान माओवादियों से निपटने की राज्य की नाकामी को प्रचारित करने और ममता बनर्जी को खुश करने के लिए राज्य सरकार को विभिन्न तरीकों से घेरने पर लगा हुआ है वहीं राज्य सरकार भी सिर्फ इसी बात के लिए अथक प्रयास कर रही है कि किस प्रकार सत्ता में पुनर्वापसी हो सके।

पिछले सप्ताह केंद्रीय गृह मंत्रालय और पश्चिम बंगाल सरकार के बीच शुरू हुआ ‘पत्र युद्ध’ अभी कितना और चलेगा, यह तो समय ही बताएगा लेकिन इस ‘पत्र युद्ध’ के दौरान दोनों ओर से इस्तेमाल किये गये बयान रूपी अस्त्रों शस्त्रों से यह तो पता चल ही गया कि ‘राजनीति’ के लिए फिलहाल नक्सल विरोधी अभियान की किसी को चिंता नहीं है।

लोकतंत्र को परिपक्व बनाने और संवैधानिक दायित्वों को कर्मठता से निभाने का दावा करने वाली कांग्रेस की अगुवाई वाली सरकार में यह देख कर अचम्भा हुआ कि किस प्रकार राजनीति की वेदी पर केंद्र राज्य संबंधों को क्षति पहुंचाई जा रही है। जब संसद के मानसून सत्र को विपक्ष ने जेपीसी की मांग नहीं माने जाने पर नहीं चलने दिया था तो प्रधानमंत्री ने अपनी विदेश यात्रा के दौरान बयान दिया था कि उन्हें संसदीय लोकतंत्र के भविष्य को लेकर चिंता हो रही है लेकिन उन्हें यह भी चिंता करनी चाहिए कि उनके मंत्री और मंत्रालय क्या क्या कर रहे हैं। आखिर क्यों और कैसे केंद्रीय गृह मंत्री द्वारा किसी मुख्यमंत्री को लिखा गया पत्र मुख्यमंत्री को मिलने से पहले ही मीडिया में लीक कर दिया गया? यह भी बड़ा सवाल है कि क्यों गृह मंत्रालय और बंगाल सरकार की ओर से पत्रों के अंश पावक को पत्र मिलने से पूर्व मीडिया को जारी कर दिये गये?

इसे भी चुनावी राजनीति नहीं तो और क्या कहेंगे कि केंद्रीय गृह मंत्रालय ने चुनावों की ओर बढ़ रहे राज्य के मुख्यमंत्री को भेजे गये पत्र के बारे में आधिकारिक वक्तव्य में बताया कि मुख्यमंत्री को गृह मंत्री की ओर से लिखे गये पत्र स्पीड पोस्ट और फैक्स से भेज दिये गये हैं। गृह मंत्रालय की अपनी जो प्रतिष्ठा और संवैधानिक कद है वह यह नहीं कहता कि कोई भी पत्र भेजने पर वह वक्तव्य जारी कर बताए कि पत्र का जवाब भेज दिया गया है और किस माध्यम से भेजा गया है।

यह देख कर भी अचम्भा हुआ कि एक मंत्री द्वारा किसी मुख्यमंत्री को लिखे गये पत्र के बारे में दूसरा मंत्री मुख्यमंत्री से जवाब मांगे। यह सही है कि वित्त मंत्री प्रणव मुखर्जी बंगाल से होने के नाते वहां से जुड़े मसलों पर दखल देने का अधिकार रखते हैं लेकिन गृह मंत्री द्वारा मुख्यमंत्री बुद्धदेव को लिखे गये पत्र का जवाब देने की मुख्यमंत्री से मांग करना उन्हें शोभा नहीं देता।

रही बात बुद्धदेव भट्टाचार्य की तो उन्होंने भी गृहमंत्री की ओर से उठाए गए सशस्त्र कैडरों के संवदेनशील मुद्दे को हल्का बनाते हुए चिदंबरम के पत्र में प्रयोग किए गए ‘हरमद’ शब्द पर आपत्ति जताते हुए इसे ही बड़ा मुद्दा बना दिया। बुद्धदेव को पता है कि माकपा के सशस्त्र गुटों के बारे में उनके पास कोई जवाब नहीं है इसलिए उन्होंने ‘हरमद’ शब्द पर अपनी आपत्ति को ही प्रमुखता से उठा कर राजनीति की। जिन सशस्त्र कैडरों को चुनावों से पहले निहत्था करने की जरूरत है, उन्हें निहत्था कैसे किया जाए इस बात पर चर्चा होने की बजाय उनको पुकारा किस नाम से जाए, इस पर विवाद को देखते हुए कहा जा सकता है कि ‘इट हैप्पन्स ओनली इन इंडिया’ क्योंकि कहीं और शायद हर चीज को चुनावी राजनीति से जोड़ कर देखे जाने की इतनी कट्टर परम्परा नहीं है।

इसमें कोई दो राय नहीं कि वाममोर्चा के शासन में अनेकों खामियां हैं तथा बंगाल आज भी पिछड़ा हुआ है और वहां आमूलचूल परिवर्तन की जरूरत है, लेकिन ऐसा करने के लिए हमें लोकतंत्र की मान्य परम्पराओं के आधार पर ही कदम आगे बढ़ाना चाहिए साथ ही उन सुरक्षा बलों के मनोबल को कम करने का ऐसा कोई भी प्रयास नहीं करना चाहिए जो दिन रात माओवादी, नक्सली चुनौती का सामना कर रहे हैं।

जय हिन्द, जय हिन्दी
नीरज कुमार दुबे