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Friday 30 August, 2013

हत्यारे यासीन भटकल पर राजनीति अच्छी बात नहीं

भारत-नेपाल सीमा से गिरफ्तार इंडियन मुजाहिदीन के आतंकवादी यासीन भटकल को लेकर भी राजनीति शुरू हो गयी है। अंग्रेजी समाचारपत्र टाइम्स ऑफ इंडिया के दिनांक 30 अगस्त 2013 के अंक में प्रकाशित एक खबर के अनुसार बिहार पुलिस ने अपनी हिरासत के दौरान यासीन से कोई पूछताछ नहीं की। एनआईए ने केस दर्ज करने और यासीन को अपनी हिरासत में लेने के बाद उससे पूछताछ की। यहां सवाल खड़ा होता है कि जबकि यासीन और उसका संगठन हाल ही में बोधगया में हुए श्रृंखलाबद्ध बम धमाकों के मामले में संदिग्ध है तो फिर क्यों पूछताछ नहीं की गयी? कहीं यह एक वर्ग के वोटों की खातिर तो नहीं किया गया। मुख्यमंत्री नीतीश कुमार धर्मनिरपेक्ष दिखने के प्रयास में तो पुलिस को ऐसा कोई आदेश नहीं दे बैठे?

 
दूसरी ओर दिल्ली में केंद्रीय राज्य मंत्री राजीव शुक्ला ने इस बड़ी गिरफ्तारी का श्रेय सरकार को देते हुए कहा है कि राजग के कार्यकाल में आतंकवादी वारदातें हो रही थीं और इस सरकार के राज में आतंकवादी गिरफ्तार किये जा रहे हैं। ''पहले अब्दुल करीम टुंडा को पकड़ा गया और अब भटकल को।'' शुक्ला जी को वह परिस्थितियां याद करनी चाहिएं जब आतंकवादी अपनी साजिशों को अंजाम देने में सफल हो जाते हैं और सरकारें खुफिया तंत्र की 'विफलता' के नाम पर हुए खुद को बचा ले जाती हैं। अब जबकि यह कामयाबी सुरक्षा एजेंसियों और खुफिया तंत्र की है तो नेता लोग अपनी पीठ ठोकने में लग गये।
 
इसमें कोई दो राय नहीं कि हमारी अदालतें इंडियन मुजाहिदीन की साजिशों के शिकार लोगों को न्याय प्रदान करेंगी और भटकल तथा उसके साथियों को सर्वाधिक कड़ी सजा सुनाएंगी। फिलहाल सरकार को चाहिए कि वह इस मामले की जल्द से जल्द सुनवाई करवाने का प्रबंध करे और भटकल को सुनाई जाने वाली सजा पर भी फौरन अमल किया जाए ताकि इंडियन मुजाहिदीन की कमर पूरी तरह टूट सके। भटकल की गिरफ्तारी से उसका संगठन उसी तरह कमजोर होगा जिस तरह ओसामा बिन लादेन के मारे जाने के बाद अल कायदा और हकीमुल्ला महसूद के मारे जाने के बाद पाकिस्तान तालिबान कमजोर हुआ। हालांकि यह संगठन अभी भी आतंकी वारदातों को अंजाम देने में लगे हुए हैं लेकिन पहले के मुकाबले इनकी ताकत तो कम हुई ही है। भटकल भारत के लिए ओसामा या महसूद से कम नहीं है क्योंकि उस पर विभिन्न आतंकी हमलों में 250-300 लोगों को मारने का आरोप है।
 
भटकल उर्फ मोहम्मद अहमद सिद्धिबप्पा की गिरफ्तारी एक बड़ी कामयाबी तो है लेकिन हमें इस बात को लेकर 'जश्न' मनाते समय सावधानी बरतनी चाहिए। भटकल को गिरफ्तारी के समय जब गाड़ी से लाया जा रहा था तो चेहरा ढंका हुआ होने के बावजूद वह एक उंगली से कोई इशारा कर रहा था। संभव है कि यह इशारा वह अपने स्लीपर सेल को कर रहा हो और इसके माध्यम से कोई संदेश दे रहा हो। मीडिया को वह दृश्य नहीं दिखाना चाहिए था। मुंबई हमले के दौरान हमारे मीडिया के लाइव कवरेज प्रेम का फायदा ही सीमा पार बैठे आतंकी उठा रहे थे फिर भी सबक नहीं लिया गया है। सुरक्षा एजेंसियों को उसे लेकर काफी सतर्कता बरतनी होगी क्योंकि कुशाग्र बुद्धि वाला भटकल कई बार उन्हें चकमा दे चुका है और एक बार तो कोलकाता पुलिस की गिरफ्त में आने के बाद भी वह छूट चुका है।

इंडियन मुजाहिदीन की आतंकी साजिशों में मारे गये लोगों के परिजनों को इस बात से कुछ सुकून मिल सकता है कि उनसे उनके पि्रयजन छीनने वाला पकड़ा गया और अब सजा भोगेगा। भटकल और उसके साथियों ने जिन बच्चों से उनके माता पिता, जिन माता पिताओं से उनके बच्चे, जिन महिलाओं से उनके पति या जिन पतियों से उनकी पत्नी, जिन बुजुर्गों से उनके जीवन का सहारा छीन लिया  वह पीडि़त आज भी पल पल न्याय की आस में हैं। इसलिए इस मामले की शीघ्र सुनवाई होनी चाहिए। सुरक्षा एजेंसियों को अब चाहिए कि वह भटकल के अन्य महत्वपूर्ण साथियों इकबाल और रियाज भटकल को भी पकड़ने का प्रयास करें, इनके बारे में माना जाता है कि वे कराची में छिपे हैं।


भारत माता की जय
नीरज कुमार दुबे


 
 

Monday 27 May, 2013

नक्सलियों से आरपार की लड़ाई का वक्त आया

छत्तीसगढ़ में नक्सलियों की ओर से किया गया राजनीतिक नरसंहार लोकतंत्र के लिए खतरे की घंटी है क्योंकि हिंसा के जरिए सत्ता परिवर्तन की चाह रखने वाले इसे अपनी एक बड़ी कामयाबी के रूप में देख रहे होंगे। इसे मात्र कांग्रेस पार्टी पर हमला नहीं माना जाना चाहिए क्योंकि यह समूची लोकतांत्रिक व्यवस्था को चुनौती है। छत्तीसगढ़ में लोकतांत्रिक ढंग से अपना अभियान चला रहे कांग्रेस के लगभग समूचे प्रदेश नेतृत्व का जिस वीभत्स तरीके से सफाया किया गया उसकी जितनी निंदा की जाए कम है। लेकिन सिर्फ इसी भर से काम नहीं चलने वाला। नक्सलियों को मुंहतोड़ जवाब देना भी जरूरी है। एक समय नक्सलियों से निपटने के लिए सेना की मदद लेने की बात उठी थी लेकिन तब कहा गया था कि अपने ही देशवासियों पर सेना की कार्रवाई ठीक नहीं रहेगी। लेकिन अब समय आ गया है जबकि हमें नक्सलियों/माओवादियों के मानव अधिकारों को एक ओर रख आरपार की लड़ाई लड़नी चाहिए। हो सकता है कि कुछ मानवाधिकार कार्यकर्ता इस पर आपत्ति उठाएं लेकिन उनकी परवाह नहीं की जानी चाहिए।

क्या यह कार्रवाई तालिबान द्वारा की जाने वाली कार्रवाइयों से कम बर्बर है जिसमें सलवा जुडूम अभियान को शुरू करने वाले कांग्रेस नेता महेंद्र कर्मा को बर्बर तरीके से मार दिया गया, प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष नंद कुमार पटेल और उनके बेटे को अगवा करने के बाद मार दिया गया, विद्याचरण शुक्ल तथा अन्य कांग्रेस नेताओं, कार्यकर्ताओं, सुरक्षाकर्मियों को गोलियों से छलनी कर दिया गया। अभी कुछ समय पहले ही नक्सलियों ने एक सीआरपीएफ जवान की हत्या के बाद उसके पेट में बम फिट कर दिया था ताकि जब उसके शव को हवाई मार्ग से ले जाया जाए तब वायुयान में विस्फोट हो और बड़ी तबाही हो सके।

यह नक्सली आखिर किस विकास की कमी का रोना रोते हैं? सरकार द्वारा बनाये जाने वाले पंचायत भवनों, स्कूलों, अस्पतालों और संचार टावरों को यह जब तब विस्फोट कर उड़ाते रहते हैं ताकि ग्रामीण आबादी तक विकास की बयार नहीं पहुंच सके। कई बार यह भी देखने में आया है कि हथियारों के बल पर यह ग्रामीणों को अपने पक्ष में बनाये रखते हैं। हथियारों को प्राप्त करने के लिए यह आईएसआई और कई अन्य विदेशी आतंकी संगठनों की सहायता भी लेते हैं। अपने ही देश के विरुद्ध जंग में शामिल यह लोग हिंसा के बल पर एक दिन सत्ता पाने की चाहत रखते हैं। जो भूमिका अफगानिस्तान में तालिबान, लेबनान में हिज्बुल्ला और यमन में अल कायदा चाहते हैं लगभग वैसा ही कुछ भारत में नक्सली भी चाहते हैं। इन उक्त आतंकी/उग्रवादी संगठनों के उद्देश्य या इतिहास भले अलग हो लेकिन कार्रवाइयां एक जैसी ही हैं। ऐसे में यह समय की मांग है कि राजनीतिक मतभेदों को परे रख एकजुट होकर नक्सलियों से निपटें और सेना तथा सुरक्षा बलों को और अधिकार प्रदान करें ताकि इन देश विरोधी और मानवता विरोधी तत्वों का तेजी से सफाया हो सके।

हालांकि ऐसा नहीं है कि नक्सली समस्या से निपटने की दिशा में किये जा रहे सरकार के प्रयास नाकाफी हों लेकिन आक्रामक एकीकृत रणनीति का जरूर अभाव दिखता है। उदाहरण के तौर पर यह हमला केन्द्रीय गृह सचिव आरके सिंह द्वारा संसद की एक समिति के समक्ष व्यक्त इस बयान के ठीक दो महीने बाद हुआ है कि माओवादी हिंसा की स्थिति में काफी परिवर्तन हुआ है। सिंह ने 28 मार्च 2013 को गृह मंत्रालय से संबंधित संसद की स्थायी समिति के समक्ष कहा था, ‘‘सभी राज्यों में स्थिति में परिवर्तन हुआ है और यह परिवर्तन बेहतरी के लिए हुआ है। छत्तीसगढ़ और झारखंड में स्थिति एकदम उलट गयी है और अब हम नक्सलवादी समूहों का पीछा कर रहे हैं।’' हालांकि संसदीय समिति ने स्थिति में सुधार की बात का समर्थन नहीं किया था।

सभी दलों को यह समझना होगा कि वामपंथी उग्रवाद भारत की आंतरिक सुरक्षा के लिए सबसे बड़ा खतरा है। इसलिए उनसे कोई सहानुभूति नहीं दशाई जानी चाहिए। पहले कई बार ऐसे वाकये हुए हैं जब कुछ दलों पर चुनावी लाभ के लिए माओवादियों का साथ लेने के आरोप लगते रहे हैं। देशद्रोह जैसे आरोप का सामना कर चुके विनायक सेन को केंद्र सरकार द्वारा योजना आयोग की एक समिति में लिया जाना भी शुद्ध राजनीति था। ऐसे वाकयों से इन लोगों का हौसला बढ़ता है इसलिए इनसे सभी को समान दूरी बनाकर चलना चाहिए। हमें चुनावी हार जीत की सोच से ऊपर उठते हुए देश के बारे में सोचना होगा क्योंकि माओवादी हमारे देश के लोकतांत्रिक ताने बाने को सीधी चुनौती दे रहे हैं। बंदूक के दम पर राजनीतिक सत्ता हासिल करने के उनके लक्ष्य को पूरा नहीं होने देने के लिए सभी को एकजुट होना पड़ेगा साथ ही उनकी विचारधारा को भी विभिन्न मंचों पर चुनौती दी जानी चाहिए ताकि ग्रामीण आबादी भी इस विचारधारा से नफरत कर सके।

बहरहाल, कांग्रेस नेताओं खासकर महेंद्र कर्मा की कमी नक्सल विरोधी आंदोलन से जुड़े लोगों को हमेशा खलेगी क्योंकि राजनीतिक हितों से ऊपर उठते हुए बतौर विपक्ष के नेता वह राज्य सरकार के नक्सलियों के खिलाफ अभियान में पूरा साथ देते थे। वह नक्सलियों की हिट लिस्ट में सबसे ऊपर थे इसके बावजूद उन्होंने कभी भी अपनी जान की परवान नहीं की और नक्सल विरोध का झंडा आजीवन बुलंद किये रहे और आखिर में शहीद हो गये। नक्सलियों के आगे नहीं झुकने वाले शहीदों को नमन।

नीरज कुमार दुबे

Monday 11 February, 2013

जिंदा अफजल पर जब होती थी राजनीति तो मौत पर भी होनी ही थी


संप्रग सरकार ने संसद हमला मामले में दोषी ठहराये गये अफजल गुरु को फांसी पर चढ़ाया तो इसके साथ ही राजनीति भी शुरू हो गयी। विपक्ष कह रहा है कि इस वर्ष होने वाले 9 राज्यों के विधानसभा चुनाव और अगले वर्ष होने वाले लोकसभा चुनावों को ध्यान में रखते हुए यह कदम उठाया गया तो सरकार की दलील है कि कानून ने विधिपूर्वक अपना कार्य किया। लेकिन वजह जो भी हो, भारत की सॉफ्ट स्टेट की छवि को तोड़ने में यह कदम जरूर मददगार साबित होगा।

अब 21 फरवरी से शुरू हो रहे संसद के बजट सत्र में सरकार के हौसले बुलंद रहेंगे और राष्ट्रपति के अभिभाषण में अपनी उपलब्धियों का बखान संप्रग सरकार खूब कर सकती है। पिछले छह महीने से सरकार और कांग्रेस ने एकदम कमर कस रखी है और समय के हिसाब से कभी सख्त आर्थिक तो कभी राजनीतिक फैसले लेकर उस पर तेजी से अमल कर रही है। पिछले माह जयपुर में हुई कांग्रेस की चिंतन बैठक में तय किया गया था कि विपक्ष जिन जिन संभावित मुद्दों पर आने वाले चुनावों में कांग्रेस को घेर सकता है उन उन मुद्दों का हल निकाल कर विपक्ष को नए मुद्दों की खोज करने में ही समय व्यतीत करने को विवश कर दिया जाए। अफजल की सजा पर अमल भी विपक्ष के तरकश के सभी तीरों को खत्म कर देने के प्रयास के तहत हुआ हो, ऐसा संभव है।

यह भी संभव है कि तय रणनीति के अनुसार गृहमंत्री सुशील कुमार शिंदे ने कांग्रेस की चिंतन बैठक में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और भारतीय जनता पार्टी पर हिन्दू आतंकवाद को बढ़ावा देने के लिए आतंकी प्रशिक्षण केंद्र चलाने का आरोप लगाया हो। बाद में कांग्रेस पार्टी ने शिंदे के इस आरोप से किनारा भी कर लिया और दूसरी तरफ भाजपा और संघ परिवार को अन्य मुद्दों को दरकिनार कर भगवा आतंकवाद मुद्दे पर धरने प्रदर्शन करने के लिए बाध्य कर दिया। जब भगवा आतंकवाद मुद्दा छा गया तो अफजल की फांसी पर अमल कर सभी तरह के आतंकवाद को एक ही चश्मे से देखने का दावा किया गया। जो शिंदे भगवा आतंकवाद को लेकर विपक्ष के निशाने पर थे उनकी स्थिति अब पहले से बहुत मजबूत हो गयी है क्योंकि उन्होंने राष्ट्रपति की ओर से अफजल गुरु की दया याचिका खारिज करने के तुरंत बाद उसको फांसी दिए जाने संबंधी आदेश पर हस्ताक्षर कर दिये। नरम व्यक्ति की अपनी छवि को तोड़ते हुए शिंदे ने बतौर गृहमंत्री तीन महीने के भीतर दो दुर्दांत आतंकवादियों- अजमल कसाब और अफजल गुरु को फांसी दिलवाकर और वह भी बड़े ही गुपचुप तरीके से, अपनी कार्यक्षमता को सिद्ध किया है। हालांकि यहां गौर करने वाली बात यह भी है कि इससे पहले शिंदे जिन मंत्रालयों में रहे उनमें कभी कोई बड़ा कार्य नहीं कर पाये ऐसे में यहां सवाल यह भी उठता है कि वह कहीं से निर्देशित तो नहीं हो रहे?

यह बात सही है कि अफजल को फांसी से केंद्र सरकार ने आतंकवाद को साफ संदेश दिया है कि किसी भी सूरत में भारत विरोधी कार्रवाई को बर्दाश्त नहीं किया जाएगा। लेकिन ऐसे मामलों पर तुरंत कार्यवाही होने से ही आतंकवादियों का मनोबल गिराया जा सकता है। सन 2005 में जब अफजल की सजा ए मौत पर सुप्रीम कोर्ट ने भी अपनी मुहर लगायी थी तभी यदि सजा पर अमल कर दिया जाता तो संभव है कि उसके बाद हुई आतंकी घटनाओं को अंजाम देने से पहले आतंकवादी दस बार सोचते। अफजल को फांसी की टाइमिंग पर सवाल अब भले विपक्ष उठा रहा हो लेकिन उसके मामले को जान बूझकर लटकाने के आरोप भी कांग्रेस पर लगते रहे। खुद अफजल ने भी ऐसा ही कुछ आरोप कांग्रेस पर लगाया था। 2008 में आए अफजल के एक साक्षात्कार के मुताबिक उसने कहा था, 'मैं तिल तिलकर मरना नहीं चाहता। लेकिन केंद्र सरकार फांसी नहीं देगी इसलिए मेरी मंशा है कि आडवाणी प्रधानमंत्री बन जाएं क्योंकि वही एकमात्र ऐसा व्यक्ति है जो उसकी फांसी पर जल्द फैसला ले सकता है'।

कसाब और अफजल मामले के बाद अब जब समझौता ट्रेन धमाका और मालेगांव बम धमाके के आरोपियों की दोषसिद्धि और सजा पर अमल की बात आएगी तो कांग्रेस सरकार उन पर भी तेजी से कार्यवाही कर हर तरह के आतंकवाद को एक ही नजर से देखने की बात और पुख्ता तरीके से कह सकेगी। अफजल को फांसी से होने वाले कुछ असरों की बात करें तो जिस तेजी के साथ कसाब और अफजल की सजा को अंजाम दिया गया उससे आतंकवादियों के मन में यह खौफ तो जरूर पैदा होगा कि अब सरकार सख्त फैसले लेने में हिचक नहीं रही है। साथ ही उन आतंकवादियों की बारी भी अब जल्द आ सकती है जोकि मौत की सजा पर अमल की प्रतीक्षा कर रहे हैं। राजनीतिक रूप से जो असर पड़े हैं उनमें प्रमुख यह है कि पिछले कुछ दिनों से भाजपा और संघ परिवार की ओर से देश में जो हिन्दुत्ववाद का माहौल बनाया जा रहा था उसको कांग्रेस ने राष्ट्रवाद के माहौल में बदल दिया है और राहुल बनाम मोदी की बहस भी अब कुछ दिनों तक थमने के आसार हैं। हालांकि अब इन अटकलों को भी बल मिला है कि सरकार समय से पहले चुनाव करा सकती है।

इस मामले को लेकर राजनीति पहले से ही होती रही है इसलिए अब कोई नई बात नहीं दिखाई पड़ती। भाजपा अब तक जिंदा कसाब और अफजल को लेकर सरकार को घेरती रहती थी वहीं अब कांग्रेस चुनावों में कसाब और अफजल की मौत का श्रेय लेने से नहीं हिचकेगी। कांग्रेस नेता और सूचना प्रसारण मंत्री मनीष तिवारी के एक बयान से इस बात की पुष्टि भी होती है जिसमें उन्होंने कहा, ''जिन्होंने आतंकवादियों को पनाह दी और उनके साथ कंधार गए’’ उन्हें अन्य के नेतृत्व वाली सरकारों पर अंगुली उठाने के पहले आत्मनिरीक्षण करना चाहिए।''

बहरहाल, इस मामले पर राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी को सबसे ज्यादा श्रेय जाता है क्योंकि उन्होंने दया याचिका पर अपने पूर्ववर्तियों की तरह निर्णय को लटकाया नहीं। उनके सख्त तेवरों से साफ है कि आतंकवाद किसी भी कीमत पर बर्दाश्त नहीं किया जाएगा और वह महज रबर स्टाम्प बने रहने वाले राष्ट्रपति नहीं हैं।

जय हिंद, जय हिंदी
नीरज कुमार दुबे