
नेशनल इन्वेस्टिगेटिंग एजेंसी (एनआईए) के गठन और गैर कानूनी गतिविधि निरोधक संशोधन कानून को सभी दलों के समर्थन से लोकसभा में मिली मंजूरी दर्शाती है कि आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई में पूरा देश अब एक साथ खड़ा है। यहां सवाल यह खड़ा होता है कि इस 'एकता' को बनने में इतना समय क्यों लग गया। आतंकवादी हमले तो देश में पिछले कुछ समय से लगातार हो रहे हैं फिर मुंबई हमलों के बाद ही सभी दलों को 'एकजुट' होने की क्यों सूझी? दरअसल इसके पीछे एकमात्र कारण जनता का आक्रोश है। मुंबई हमलों के बाद जिस प्रकार जनता का आक्रोश सामने आया उसके आगे सरकार को झुकना ही पड़ा।
जनता की ताकत को समझने वाले राजनीतिक दल जनता की 'एकता' को देखकर ही कार्रवाई को मजबूर हुये और सरकार की ओर से पहला कदम गृहमंत्री पद से शिवराज पाटिल की रवानगी रहा और उसके बाद महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री पद से विलासराव देशमुख और उपमुख्यमंत्री पद से आरआर पाटिल की छुट्टी हुई। अब महाराष्ट्र के पुलिस प्रमुख और मुंबई के पुलिस कमिश्नर पर कार्रवाई की तैयारी है। इसके अलावा सरकार की ओर से आतंकवाद के खिलाफ कड़ा कानून और राष्ट्रीय जांच एजेंसी का गठन के लिये विधेयक लाया गया। राष्ट्रीय जांच एजेंसी बनाने की बात तो सरकार काफी समय से कर रही थी लेकिन आतंकवाद के खिलाफ कड़ा कानून लाने से पहले वह बचती फिर रही थी। याद कीजिये प्रधानमंत्री और शिवराज पाटिल के वह बयान जोकि उन्होंने हर आतंकवादी घटना के बाद दोहराये कि आतंकवाद से निपटने के लिए देश में पर्याप्त कड़े कानून हैं। फिर इस नये कानून की जरूरत क्यों पड़ गई? सरकार को स्वीकार करना चाहिए कि आतंकवाद से कड़ाई से निबटने के मामले में वह देर से जागी है। खैर, सुबह का भूला शाम को घर लौट आये तो उसे भूला नहीं कहा जाना चाहिये। न ही इसे यूपीए का यू टर्न कहा जाना चाहिये।
अब राजनीतिक दलों में जो एकता नजर आ रही है उसका कारण आसन्न लोकसभा चुनाव भी हैं। हर दल अपनी जीत सुनिश्चित करने का कोई भी प्रयास नहीं छोड़ना चाहता। हमारे देश में एक जो गलत प्रचलन है वह यह है कि यहां हर बात को राजनीति से जोड़ कर देखा जाता है। जब देश में पोटा कानून बना तो उसे भी राजनीति का शिकार होना पड़ा और कहा गया कि यह कानून एक खास संप्रदाय के लोगों को ध्यान में रखते हुए बनाया गया। यह तब हुआ जबकि अमेरिका पर 11 सितंबर 2001 के आतंकवादी हमले के बाद दुनिया के बहुत से देशों ने अपने आतंकवाद विरोधी कानूनों को सख्त कर दिया लेकिन भारत ने पोटा को खत्म कर अधोगामी कदम उठाया। कानून को देश की संसद बनाती है जिसमें सभी संप्रदायों और वर्गों का पर्याप्त प्रतिनिधित्व है इसलिए ऐसी बातें नहीं फैलाई जानी चाहिए जिससे किसी संप्रदाय विशेष के मन को पीड़ा पहुंचे या वह अलग-थलग महसूस करे। संभवत: कांग्रेस को यही डर रहा होगा कि आतंकवाद के खिलाफ कड़े कानून को कहीं कोई संप्रदाय विशेष अपने खिलाफ न मान ले। आतंकवाद विरोधी कानूनों को पारित किए जाने के काम में ऐसी चिंताओं का असर नहीं पड़ना चाहिए लेकिन इन चिंताओं का समाधान भी किया जाना चाहिए और यह कानून में दिखना चाहिए ताकि यह सुनिश्चित हो सके कि जब भी कानून को लागू किया जाएगा इसका पारदर्शी और उचित तरीके से इस्तेमाल किया जाएगा।
सरकार की ओर से गृहमंत्री पी. चिदंबरम ने वादा किया है कि आतंकवाद पर लगाम कसने के लिए जो दो विधेयक लाये गये हैं उनमें इस बात का पूरा ध्यान रखा गया है कि इनसे आतंकवाद को काबू भी किया जा सके और किसी के बुनियादी मानवाधिकारों का भी हनन न हो।
चिदंबरम के मुताबिक, राष्ट्रीय जांच एजेंसी (एनआईए) के कामकाज के दायरे में आठ कानूनों को रखा गया है। एजेंसी सभी तरह के आपराधिक मामलों की जांच नहीं करेगी। विधेयक के अध्याय तीन में आपराधिक घटनाओं के जांच की प्राथमिक जिम्मेदारी राज्य सरकारों के अधीन है लेकिन विशेष मामलों में राष्ट्रीय एजेंसी जांच कार्य करेगी। अगर कोई गंभीर आपराधिक मामला किसी थाने में दर्ज होता है तो राज्य सरकार इसकी जानकारी केंद्र सरकार को देगी और केंद्र सरकार 15 दिनों के भीतर अपराध की गंभीरता का आकलन करेगी और इस बात पर निर्णय करेगी कि क्या यह मामला राष्ट्रीय जांच एजेंसी को सुपुर्द किया जा सकता है या नहीं। अगर केंद्र सरकार इस दौरान कोई निर्णय नहीं कर पाती है तो मामला राज्य सरकार के अधीन ही रहेगा।
राष्ट्रीय जांच एजेंसी का अधिकार क्षेत्र कितना व्यापक है इस बात का अंदाजा इसी से लग जाता है कि कानून-व्यवस्था जोकि राज्यों का मामला है इसलिए सीबीआई जब भी किसी राज्य में किसी मामले में कार्रवाई करती है तो उसे वहां की सरकार की अनुमति चाहिये होती है लेकिन राष्ट्रीय जांच एजेंसी को ऐसी किसी अनुमति की आवश्यकता नहीं पड़ेगी। इसके अलावा एजेंसी के सब इंस्पेक्टर से बड़े पद वाले अफसर भी देश में कहीं भी जांच करने के लिए स्वतंत्र होंगे। यह एजेंसी जिन मामलों में कार्रवाई करेगी उनकी सुनवाई के लिए विशेष अदालते स्थापित की जायेंगी। इन मामलों की सुनवाई रोजाना होगी।
गैर कानूनी गतिविधियां रोकथाम (संशोधन) विधेयक की खास बात यह है कि इसमें हिरासत की अवधि 90 दिन से बढ़ाकर 180 दिन कर दी गई है। इसके अलावा विदेशी आतंकवादियों को कोई जमानत नहीं मिलेगी। भारतीय आरोपी को भी जमानत के लिए बेहद कड़े नियम बनाये गये हैं। कानून के मुताबिक आरोपी की संपत्ति भी जब्त की जा सकेगी। इस कानून के तहत सभी अपराध संज्ञेय होंगे और भारत या विदेश में आतंकवादियों के लिए पैसे का इंतजाम करने वालों को पांच साल से लेकर उम्रकैद तक की सजा का प्रावधान है।
बहरहाल, सिर्फ इन दो विधेयकों के पास होने भर से काम नहीं चलने वाला। देश में पुलिस सुधारों की भी आवश्यकता है। इसके अलावा सुरक्षा बलों को उच्च तकनीकों और आधुनिक हथियारों से भी लैस किया जाना चाहिए। भारत को अत्यावश्यक तौर पर मुंबई जैसे हमलों से निपटने में पुलिस की शक्तियों सहित आतंकवाद विरोधी कानूनों की जड़ से लेकर शाखाओं तक समीक्षा करनी चाहिए। यदि हमें दूसरी मुंबई घटना को रोकना है तो समीक्षा से कोई भी पहलू अछूता नहीं रहना चाहिये।
इसके अलावा अन्य जिन कदमों पर गौर किया जा सकता है उनमें गृह मंत्रालय से अलग एक राष्ट्रीय सुरक्षा मंत्रालय का गठन किया जाना चाहिए तथा राष्ट्रीय खुफिया निदेशक का एक पूर्णकालिक पद बनाया जाना चाहिये तथा राष्ट्रीय सुरक्षा मामलों पर अधिकारियों का एक अलग कैडर बनाया जाना चाहिये।
नीरज कुमार दुबे