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Monday 30 August, 2010

आतंकवाद तो पहले ही काला है, इसे किसी और रंग में न रंगें


केंद्रीय गृहमंत्री पी. चिदम्बरम ने आतंकवाद को ‘भगवा’ रंग से जोड़कर एक नया विवाद खड़ा कर दिया है। जब जरूरत आतंकवाद से निपटने के उपायों को पुख्ता बनाने की और इसके विरोध में एक साथ खड़े होने की है तो गृहमंत्री शायद इसमें व्यस्त रहे कि पहले आतंकवाद का ‘प्रतीक रंग’ तय कर दिया जाए। पिछले सप्ताह नई दिल्ली में राज्यों के पुलिस महानिदेशकों और पुलिस महानिरीक्षकों के तीन दिवसीय सम्मेलन का उद्घाटन करते हुए उन्होंने कह दिया कि हाल ही में हुए कई बम विस्फोटों से ‘भगवा आतंकवाद’ का नया स्वरूप सामने आया है। चिदम्बरम ने यह बात कह कर साम्प्रदायिक सौहाद्र्र कायम रखने के अपने ही सरकार के वादे को तोड़ने का प्रयास तो किया ही साथ ही अपनी पार्टी और सरकार को भी मुश्किल में डाल दिया। चिदम्बरम के इस बयान का विरोध सिर्फ विपक्ष ने ही नहीं बल्कि खुद उनकी पार्टी ने भी किया है। कांग्रेस ने साफ किया है कि आतंकवाद को भगवा रंग से जोड़ा जाना सही नहीं है क्योंकि आतंकवाद का कोई रंग नहीं होता है।

यह आश्चर्यजनक है कि चिदम्बरम की यह टिप्पणी उसी सम्मेलन में आई जिसमें प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने देश की आंतरिक सुरक्षा और एकता के समक्ष विभिन्न प्रकार की चुनौतियों पर चिंता जताई थी। यह अपने आप में बड़ा विरोधाभास नहीं तो और क्या है कि प्रधानमंत्री तो अमन चैन कायम रखने पर जोर दें और गृहमंत्री ऐसा बयान दे डालें जिससे समुदायों के बीच खाई पैदा हो या फिर किसी समुदाय को हेय दृष्टि से देखा जाए। आतंकवाद को भगवा रंग से जोड़ने के चिदम्बरम के बयान को बतौर गृहमंत्री उनकी तीसरी बड़ी गलती भी कहा जा सकता है। इससे पहले वह पिछले वर्ष तेलंगाना मुद्दे पर जल्दबाजी दिखा कर केंद्र और राज्य सरकार के लिए बड़ी मुसीबत खड़ी कर चुके थे। दूसरी गलती उन्होंने खुद नक्सलियों से निपटने में रणनीतिक विफलता की स्वीकारते हुए प्रधानमंत्री को अपना इस्तीफा देने का प्रस्ताव पेश किया था। और अब तीसरी गलती जो उन्होंने की है उस पर भी प्रतिक्रिया होना स्वाभाविक है। अपने इस बयान से चिदम्बरम जहां समूचे संघ परिवार के निशाने पर आ गए हैं वहीं हिन्दू संगठनों को घेरने का बहाना ढूंढने वालों को एक ‘बढ़िया’ मौका मिल गया है।

जरा ‘भगवा आतंकवाद’ संबंधी टिप्पणी की टाइमिंग देखिये। अगले माह संभवतः दूसरे सप्ताह में अयोध्या विवाद पर अदालत अपना फैसला सुना सकती है तो उसी माह चैथे सप्ताह के अंत में या फिर अक्तूबर की शुरुआत में बिहार में विधानसभा के चुनाव होने हैं। अयोध्या में रामजन्मभूमि पर राम मंदिर की मांग सीधे संघ परिवार और भाजपा से जुड़ी है तो बिहार में चुनावों पर भाजपा का काफी कुछ दांव पर लगा हुआ है क्योंकि वह वहां सत्तारुढ़ गठबंधन में है। बिहार में जाहिर है चिदम्बरम की उक्त टिप्पणी से राजनीतिक गर्मी पैदा होगी। वहां कांग्रेस अपने आप को खड़ा करने के लिए मुख्य रूप से मुस्लिम मतों की ओर ताक रही है। साथ ही चिदम्बरम की इस टिप्पणी से वहां भाजपा के लिए बड़ी मुश्किलें खड़ी होंगी क्योंकि उसे एक तो खुद अपनी सहयोगी जद-यू से जूझना होगा जोकि सीटों के बंटवारे और नरेंद्र मोदी को बिहार में प्रचार के लिए नहीं आने देने को लेकर उस पर पहले से ही दबाव बनाए हुए है। दूसरा भाजपा को वहां इस मुद्दे पर विपक्ष के हमलों को भी झेलना होगा। लोक जनशक्ति पार्टी के प्रमुख रामविलास पासवान और राजद अध्यक्ष लालू प्रसाद यादव ने तो हिन्दू संगठनों पर पाबंदी लगाने की मांग कर ‘भगवा आतंकवाद’ को चुनावी मुद्दा बनाने के प्रबल संकेत भी दे दिए हैं। जाहिर है बिहार विधानसभा चुनावों की सरगर्मी बढ़ाने का काम गृहमंत्री की टिप्पणी ने भलीभांति कर दिया है।

लेकिन हमारे नेतागण शायद भूल रहे हैं कि आतंकवाद तो मुद्दा बन सकता है लेकिन आतंकवाद को कोई रंग देना या उसे किसी धर्म अथवा वर्ग विशेष से जोड़ना मुद्दा नहीं बन सकता। जब लोकसभा चुनावों में भाजपा ने अफजल गुरु को चुनावी मुद्दा बनाया था तो इसे एक खास समुदाय के विरोध के तौर पर देखा गया लेकिन जनता ने इस मुद्दे की हवा निकाल दी। अब ऐसा ही कुछ ‘भगवा आतंकवाद’ के मुद्दे का भी हश्र हो सकता है। वैसे बात यहां इन मुद्दों के राजनीतिक हश्र होने अथवा नहीं होने की नहीं है, बात यह है कि इस बयान से हिन्दुओं की आस्था को चोट पहुंची है। हर हिन्दू संघी अथवा भाजपाई तो है नहीं, जो इसे राजनीतिक ‘तीर’ मान कर सह जाए और वार करने की अपनी बारी का इंतजार करे। आम लोगों के लिए धर्म राजनीति से परे होता है। यह बात राजनीतिज्ञों को क्यों नहीं समझ आती?

चिदम्बरम की छवि कुशल प्रशासक की रही है इसलिए ‘भगवा आतंकवाद’ संबंधी उनकी टिप्पणी पर हैरत होती है। उन जैसे अनुभवी राजनीतिज्ञ को यह पता होना चाहिए कि आतंकवाद का कोई रंग नहीं होता। हरा, नीला, भगवा, गुलाबी आदि रंगों से आतंकवाद को नहीं जोड़ा जा सकता। यदि आतंकवाद से किसी रंग को जोड़ने की बाध्यता ही है तो उसे काले रंग से जोड़ दें क्योंकि आतंकवाद जहां भी कहर बरपाता है वहां सिर्फ काला अध्याय ही छोड़ता है। यहां एक सवाल यह भी उठता है कि ‘भगवा आतंकवाद’ संबंधी टिप्पणी करते समय चिदम्बरम के जेहन में क्यों सिर्फ साध्वी प्रज्ञा, कर्नल पुरोहित और देवेंद्र गुप्ता के ही नाम आए? वह क्यों भूल गए पुणे धमाके के आरोपियों यासीन भटकल, रियाज भटकल और बंगलुरु धमाके के आरोपी मदनी को? यही नहीं गत सप्ताह कनाडा की पुलिस ने वहां की संसद को उड़ाने की साजिश का पर्दाफाश करते हुए जिन लोगों को पकड़ा है उनमें एक भारतीय भी है जिसका नाम है मिसबाहुद्दीन अहमद। यहां यह स्पष्ट करना आवश्यक है कि इन नामों से उनके धर्मों को जोड़ना का मेरा अभिप्राय नहीं है। ऐसा किया भी नहीं जाना चाहिए। यह सभी उक्त लोग यदि आतंकवादी कृत्यों में शामिल हैं तो इन्हें सजा जरूर मिलनी चाहिए। लेकिन यह गलत होगा कि राजनीतिक अथवा अन्य कारणों से इन लोगों के चलते किसी धर्म विशेष पर निशाना साधा जाए या उसे कठघरे में खड़ा कर दिया जाए।

अमेरिका में 9/11 के बाद विश्व भर में ‘इस्लामिक आतंकवाद’ शब्द चल निकला। यह शब्द उतना ही गलत है जितना कि ‘भगवा आतंकवाद’। ‘इस्लामिक आतंकवाद’, ‘भगवाकरण’, ‘भगवा आतंकवाद’ और ‘भगवा उत्पाती’ सही शब्द नहीं हैं। इनके प्रयोग से बचना चाहिए। आतंकवाद को किसी भी धर्म से नहीं जोड़ा जा सकता क्योंकि आतंकवाद तथा आतंकवादियों का कोई धर्म नहीं होता। यदि वह लोग धर्म की दुहाई देकर अपने कार्यों को अंजाम देते हैं तो उस धर्म का उनसे बड़ा दुश्मन कोई नहीं है। क्योंकि एकाध लोगों की वजह से पूरे समुदाय को बदनाम होना पड़ता है। ऐसा ही कुछ ‘भगवा आतंकवाद’ संबंधी टिप्पणी के बाद देखने को मिल रहा है।
इसके अलावा चिदम्बरम तथा अन्य तथाकथित धर्मनिरपेक्ष नेता यह क्यों मान कर चल रहे हैं कि सारे हिन्दू राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ अथवा भाजपा से जुड़े हुए हैं और उन्हें निशाने पर लेने से सीधे भाजपा पर निशाना सध जाएगा? इसी प्रकार सभी हिन्दू संगठनों को भाजपा से जुड़ा हुआ कैसे मान लिया जाता है? जब मंगलौर में श्रीराम सेना ने वेलेंटाइन डे के विरोध में युवाओं को पीटा तो भाजपा पर राजनीतिक हमले हुए जबकि उस संगठन से भाजपा का कोई लेना-देना नहीं है। ऐसा ही गोवा के मरगांव विस्फोट मामले में संदेह के घेरे में आए अभिनव भारत और सनातन संस्था के मामले में भी भाजपा पर निशाना साधा गया जबकि खबरों के अनुसार, अभिनव भारत के लोगों से पूछताछ में यह पता चला था कि उनकी योजना राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघ चालक मोहन भागवत की हत्या करने की भी थी। ऐसे में इस संगठन को कैसे भाजपा के साथ जोड़ कर देखा जा सकता है? यह सही है कि भारत में भी कुछ कट्टरपंथी संगठन उभर रहे हैं जो हिंसा को माध्यम बना कर लक्ष्य हासिल करना चाहते हैं। लेकिन हमें इसमें नहीं पड़ना चाहिए कि वह संगठन हिन्दू हैं या मुसलमान या फिर कोई और। इनकी पहचान एकमात्र जिहादी संगठन के रूप में ही की जानी चाहिए।

भगवा रंग को आतंकवाद से जोड़ना एक प्रकार से हमारे राष्ट्रीय ध्वज का भी अपमान है जिसके तीन रंगों में से एक रंग भगवा अथवा केसरिया भी है। जो भगवा रंग जीवन के लिए महत्वपूर्ण सूर्योदय, अग्नि सहित भारतीय संस्कृति का भी प्रतीक है, उसे आतंकवाद के साथ यदि ‘राजनीतिक स्वार्थवश’ जोड़ा गया है तो इससे दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति कोई और नहीं हो सकती।

जहां छोटे से छोटे मुद्दे को लेकर राजनीति होती है, वहां ‘भगवा आतंकवाद’ शब्द पर राजनीति कैसे नहीं होती। संसद में इस मुद्दे पर हुए हंगामे से यह साफ हो गया कि ‘भगवा आतंकवाद’ शब्द पकड़कर शीघ्र ही कई दल मुस्लिमों के बीच अपना वोट बैंक मजबूत करने के प्रयास करते दिखाई देंगे। यह कैसी विकट और विचित्र स्थिति है कि हमारे राजनीतिक दल यह मानकर चलते हैं कि ‘भगवा आतंकवाद’ शब्द के प्रचार से मुस्लिम प्रसन्न होंगे। उन्हें यह पता होना चाहिए कि मुस्लिम भी जितने ‘इस्लामिक आतंकवाद’ के खिलाफ हैं उतने ही ‘भगवा आतंकवाद’ के भी। कई मुस्लिम सांसदों और विद्वानों ने ‘भगवा आतंकवाद’ शब्द पर आपत्ति जताई है। इसके अलावा देश में हुए विभिन्न विस्फोटों के बाद मुस्लिम समुदाय ने जिस प्रकार आतंकवाद के खिलाफ विरोध प्रकट कर देश की एकता बनाए रखने की बात कही, उसे किसी को भूलना नहीं चाहिए। लेकिन मुश्किल भरी बात यह है कि क्षुद्र राजनीति करने वाले दलों को सभी के ‘ब्रेन वाश’ की कला आती है जिसके बल पर वह राज करते रहे हैं।

बहरहाल, यदि चिदम्बरम हिन्दुओं की छवि कट्टरवादी की बनाना चाह रहे हैं, तो यही कहा जा सकता है कि वह गलत राह पर हैं। ‘भगवा आतंकवाद’ की बात कह कर उन्होंने सीमापार आतंकवाद, कश्मीर के बिगड़ते हालात, माओवादियों, नक्सलियों का बढ़ता आतंक, पूर्वोत्तर में उग्रवाद आदि गंभीर मुद्दों को बौना बनाने का प्रयास किया है। जो लोग कहते हैं हि ‘बांटो और राज करो’ की नीति अंग्रेजों के जमाने में थी वह गलत हैं क्योंकि यह किसी न किसी रूप में आज भी भारत में जारी है।

जय हिन्द
नीरज कुमार दुबे

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