देश के नक्सल प्रभावित राज्यों में आतंक का दूसरा पर्याय बन चुके शीर्ष माओवादी नेता मोलाजुला कोटेश्वर राव उर्फ किशनजी की सुरक्षा बलों के साथ मुठभेड़ में मौत से नक्सल आंदोलन का एक प्रमुख अध्याय समाप्त हो गया है। 26/11 के मुंबई हमलों की बरसी से ठीक पहले आंतरिक सुरक्षा के मोर्चे पर यह सचमुच सरकार और जनता के लिए बड़ी राहत की खबर है। यकीनन नक्सल विरोधी कमांडो बटालियन कोबरा ने नक्सली आंदोलन पर जो कमरतोड़ कार्रवाई की है उससे उसका शीर्ष नेतृत्व ही लगभग ध्वस्त हो गया है।
हालांकि इस घटनाक्रम के बाद माओवादियों की ओर से बदला लेने की कोई बड़ी कार्रवाई की जा सकती है इसलिए नक्सल प्रभावित क्षेत्रों में इस समय अत्यधिक सुरक्षा बरते जाने की जरूरत है साथ ही सुरक्षा बलों को चाहिए कि नेतृत्व के धराशायी होने से हताश माओवादियों को संभलने का मौका दिए बिना उनके खात्मे का प्रयास तेजी के साथ जारी रखें और ‘लाल गलियारे’ के लक्ष्य को नेस्तनाबूत कर दें। माओवादी और नक्सली देश के विकास की राह में बहुत बड़े बाधक हैं और यह भारत के लिए तालिबान से कम नहीं हैं। सभ्य समाज में इनकी कोई जरूरत नहीं है। यह जो भी सवाल उठाते रहे हैं उसके पीछे कारण चाहे जो हों लेकिन कानून अपने हाथ में लेना, आतंक फैलाना और अपने देश के खिलाफ आईएसआई जैसे विदेशी संगठनों की मदद से अभियान चलाना किसी भी तरह से क्षमा लायक नहीं है।
किशनजी की मौत की खबर हालांकि इससे पहले भी एक बार उड़ी थी लेकिन इस बार उसका शव मुठभेड़ के बाद बरामद किया गया और पहचान की गई। किशनजी माओवादी पोलित ब्यूरो का सदस्य था और जंगलमहल में 2009 से सशस्त्र संघर्ष के नेतृत्व करने वालों के पदसोपान में तीसरे नम्बर पर था। इलाके में किशनजी की मौजूदगी की सूचना मिलने के बाद अभियान चलाने वाले सीआरपीएफ, बीएसएफ और कोबरा के 1,000 जवानों ने सराहनीय काम किया है क्योंकि इन्होंने न सिर्फ नक्सली व माआेवादी हमलों में मारे गये सुरक्षा बलों की मौत का बदला लिया बल्कि आगे के लिए भी अपने साथियों सहित जनता को महफूज करने की दिशा में बड़ा कदम उठाया।
किशनजी को घेरे जाने के प्रयास पहले भी होते रहे हैं लेकिन तृणमूल कांग्रेस के कुछ कायर्कर्ताआें की हत्या के बाद पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने यह ठान लिया था कि 'अब बहुत हो चुका*। यही नहीं पिछले दिनों उन्होंने माओवादियों को आतंकवादियों से ज्यादा खतरनाक भी बताया था। खबरों के मुताबिक इस बार किशनजी की योजना झारखंड के मालाबल जंगल में भाग जाने की थी लेकिन सुरक्षा बलों ने बच कर निकलने वाले सभी रास्तों को बंद कर दिया और उसे बुरीसोल जंगल में रोक दिया और मार गिराया।
किशनजी की मौत अपने शासन के छह महीने बाद जनता और विपक्ष के सवालों से घिरीं ममता बनर्जी के लिए जबरदस्त राहत लेकर आई है। किशनजी की मौत के बाद कुछ लोग उन्हें ‘दुर्गा’ की उपाधि दे रहे हैं लेकिन उन लोगों को यह नहीं भूलना चाहिए कि ममता पर चुनावों के समय माओवादियों का साथ लेने के आरोप भी लगते रहे हैं। खुद ममता ने चुनावों से पहले कई बार उनसे सहानुभूति दर्शाई थी लेकिन उन्हें जल्द ही समझ आ गया कि ‘लातों के भूत बातों से नहीं मानते’।
किशनजी की मौत पर राजनीति भी शुरू हो गयी है। पश्चिम बंगाल की विपक्षी पार्टी माकपा इस 'कामयाबी' को तवज्जो नहीं दे रही है और कह रही है कि इससे माओवादियों पर बहुत ज्यादा असर नहीं पड़ेगा क्योंकि उन्हें राष्ट्रविरोधी ताकतों का समर्थन प्राप्त है। यही नहीं राज्य विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष सूर्यकांत मिश्रा ने तो यहां तक कहा कि ''यदि वह जिंदा पकड़े जाते, तो मुझे ज्यादा खुशी होती है। मेरी उनके परिवार के प्रति सहानुभूति है।'' बहरहाल, राजनीतिज्ञ इस घटनाक्रम से अपने फायदे और नुकसान का आकलन लगाते रहें लेकिन सुरक्षा बलों के लिए तो यह बहुत ही बड़ी कामयाबी है जोकि माओवादी हमलों के सबसे ज्यादा शिकार रहे हैं।
इसके साथ ही इस बात को लेकर भी बहस शुरू हो गयी है कि क्या भाकपा (माओवादी) संगठन में तीसरा स्थान मनहूस है, यह सवाल इसलिए उठ रहा है क्योंकि सुरक्षा बलों की ओर से जिन दो शीर्ष नक्सली नेताओं किशनजी और आजाद को मारा गया तब वे अधिक्रम में तीसरा स्थान ही हासिल किये हुए थे। मूलत: तेलुगू भाषी किशनजी के सिर पर 19 लाख रुपये का इनाम था और वह नक्सलियों की शीर्ष संस्था पोलित ब्यूरो में तीसरा 'इन कमांड' थे। इससे पहले पिछले साल आजाद को आंध्र प्रदेश पुलिस ने मुठभेड़ में मार गिराया था। उस समय आजाद के पास भी नंबर तीन का स्थान हासिल था। गौरतलब है कि गृह मंत्रालय की ओर से तैयार डोजियर के अनुसार, भाकपा (माओवादी) पोलित ब्यूरो का शीर्ष प्रमुख महासचिव गनपति है जिनके सिर पर 24 लाख रुपए का इनाम है। दूसरा 'इन कमांड' एन॰ केशव राव है जिनके सिर पर 19 लाख रुपए का इनाम घोषित है। पोलित ब्यूरो के अन्य सदस्य कत्तम सुदर्शन, माल्लोजुला वेणुगोपाल, प्रशांत बोस उर्फ किशन दा और मल्लाराजी रेड्डी हैं।
जय हिंद, जय हिंदी
नीरज कुमार दुबे
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