26 जनवरी 2009 को गणतंत्र दिवस पर राज पथ पर उपस्थित जनों को रक्षा मंत्रालय की ओर से प्रकाशित जो पत्रिका दी जा रही थी उसमें देश के महत्वपूर्ण वीरता पुरस्कार ‘अशोक चक्र’ से सम्मानित होने वाले लोगों के बारे में जानकारी दी गयी थी। पत्रिका में मोहन चन्द शर्मा के बारे में लिखा गया था-
''श्री मोहन चन्द शर्मा, इन्सपेक्टर, दिल्ली पुलिस को 19 सितम्बर 2008 को एक खास सूचना मिली कि दिल्ली श्रृंखलाबद्ध बम धमाकों के संबंध में वांछित एक संदिग्ध व्यक्ति जामिया नगर, दक्षिणी दिल्ली क्षेत्र में स्थित बटला हाउस के एक फ्लैट में छिपा हुआ है। श्री शर्मा सात सदस्यीय दल का नेतृत्व करते हुये तुरंत उस फ्लैट पर पहुंचे। ज्यों ही उन्होंने फ्लैट में अन्य दरवाजे से प्रवेश किया, उनको फ्लैट के अंदर छुपे हुये आतंकवादियों की ओर से गोलीबारी का पहली बौछार लगी। निभ्रीकता के साथ उन्होंने गोलीबारी का जवाब दिया। इस प्रकार शुरू हुई दोनों तरफ की गोलीबारी में दो आतंकवादी मारे गये तथा एक पकड़ा गया। श्री मोहन चन्द शर्मा ने आतंकवादियों से लड़ते हुये अनुकरणीय साहस और कर्तव्यपरायणता का प्रदर्शन किया तथा राष्ट्र के लिए सर्वोच्च बलिदान दिया।''
अब दूसरी ओर कांग्रेस महासचिव दिग्विजय सिंह के उस बयान को देखें जिसमें वह इस मुठभेड़ को फर्जी बताते हुए इसकी न्यायिक जांच की मांग की रट लगाये हुए हैं। यहां सवाल यह उठता है कि राष्ट्रपति की ओर से गणतंत्र दिवस पर जिस व्यक्ति को मरणोपरांत सम्मानित किया जा रहा हो और जिसकी वीरगाथा के ब्यौरे वाली सरकारी पत्रिका राज पथ पर वितरित की गयी हो, उसके अंशों पर यकीन किया जाए या फिर दिग्विजय सिंह जैसे बयानबाजी करने वाले नेता की बातों पर? सियासत के लिए नेता शहादत के महत्व को कैसे कम कर देते हैं इसकी मिसाल सिर्फ मोहन चन्द शर्मा के मामले में ही देखने को नहीं मिलती बल्कि दिग्विजय ने तो मुंबई हमले में मारे गये एटीएस प्रमुख हेमंत करकरे की शहादत पर भी अप्रत्यक्ष रूप से यह कहते हुए सवाल उठा दिया था कि वह मालेगांव धमाके की जांच के चलते कथित रूप से भगवा खेमे के निशाने पर थे। जबकि सच्चाई यह है कि करकरे आतंकवादियों की गोलीबारी में शहीद हुए थे।
दरअसल, दिग्विजय ने बटला मुठभेड़ मामले को ‘बोतल में बंद जिन्न’ के रूप में रखा हुआ है। जब कभी उन्हें जरूरत पड़ती है तो वह बोतल का ढक्कन खोल देते हैं। इस बार उन्होंने उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनावों में अल्पसंख्यकों के मत अपनी पार्टी को दिलाने के प्रयास में इस जिन्न को बाहर निकाला। जिन्न ने भी बाहर आते ही एक दूसरे को भिड़ाने का काम शुरू कर दिया है। दिग्विजय ने जब मुठभेड़ को एक बार फिर फर्जी बताते हुए कहा कि प्रधानमंत्री और गृहमंत्री इस मामले की न्यायिक जांच के पक्षधर नहीं थे तो तुरंत ही गृह मंत्री ने इस दावे का खंडन करते हुए मुठभेड़ को ‘असली’ करार दिया। प्रदेश में सरकार बनाने की दौड़ में अपने को आगे मान रही समाजवादी पार्टी के नेता आजम खां ने इस मामले में दिल्ली की शीला सरकार को घेरते हुए मुख्यमंत्री के खिलाफ मुकदमे और उन्हें जेल भेजने की मांग की तो भाजपा ने पूरे मामले पर श्वेतपत्र की तथा प्रधानमंत्री और कांग्रेस अध्यक्ष की प्रतिक्रिया की मांग की है। कुछ छुटभैये नेताओं को भी यह मामला अनुकूल लगा तो दिल्ली में चुनाव लड़ने के इच्छुक एक शख्स ने रातोंरात लोकप्रिय होने की चाहत में बटला मुठभेड़ पर योगगुरु स्वामी रामदेव की टिप्पणी से नारज होकर उन पर कालिख फेंक दी।
कांग्रेस पर पहले भी तुष्टिकरण की नीति अपनाने के आरोप लगते रहे हैं लेकिन हाल ही में पार्टी का ‘दोमुंहापन’ तब देखने को मिला जब केंद्रीय कानून मंत्री सलमान खुर्शीद ने उत्तर प्रदेश में सत्ता में आने पर मुसलमानों को पिछड़े वर्ग के कोटे से 9 प्रतिशत आरक्षण देने का वादा किया लेकिन कांग्रेस प्रवक्ता ने इसे उनका निजी विचार करार दिया। दिग्विजय ने बटला मुठभेड़ की असलियत पर सवाल उठाये तो गृह मंत्री ने मुठभेड़ को असली करार दिया। यदि यह ‘दोमुहांपन’ सिर्फ वोटों की ही खातिर है तो इसे काफी खतरनाक कहा जाएगा क्योंकि यह आतंकवादी ताकतों के आगे समर्पण करना ही माना जाएगा। उत्तर प्रदेश में अपनी पकड़ मजबूत करने में जुटी कांग्रेस को वह उदाहरण याद रखना चाहिए जिसमें भाजपा को विभिन्न चुनावों में अफजल को फांसी और आतंकवाद को मुद्दा बनाने का नतीजा भुगतना पड़ा।
दिग्विजय जोकि पूर्व में अंतरराष्ट्रीय आतंकवादी संगठन अल कायदा के सरगना ओसामा बिन लादेन को ‘ओसामाजी’ कह कर संबोधित कर चुके हैं, वह अल्पसंख्यकों के हित में जो कदम उठाना चाहते हैं वह सही भले हो लेकिन उस कदम को उठाने का तरीका कांग्रेस के लिए नुकसानदेह साबित हो सकता है। जनता यह जानना चाहती है कि जिस बटला मुठभेड़ को सरकार के अलावा तत्कालीन राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार एमके नारायणन और राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने असली बताया हो और अदालतों ने जिसकी जांच की मांग खारिज कर दी हो, उसके ‘फर्जी’ होने की बात दिग्विजय आखिर किस विशेषज्ञता के आधार पर कह रहे हैं?
जय हिंद, जय हिंदी
नीरज कुमार दुबे
''श्री मोहन चन्द शर्मा, इन्सपेक्टर, दिल्ली पुलिस को 19 सितम्बर 2008 को एक खास सूचना मिली कि दिल्ली श्रृंखलाबद्ध बम धमाकों के संबंध में वांछित एक संदिग्ध व्यक्ति जामिया नगर, दक्षिणी दिल्ली क्षेत्र में स्थित बटला हाउस के एक फ्लैट में छिपा हुआ है। श्री शर्मा सात सदस्यीय दल का नेतृत्व करते हुये तुरंत उस फ्लैट पर पहुंचे। ज्यों ही उन्होंने फ्लैट में अन्य दरवाजे से प्रवेश किया, उनको फ्लैट के अंदर छुपे हुये आतंकवादियों की ओर से गोलीबारी का पहली बौछार लगी। निभ्रीकता के साथ उन्होंने गोलीबारी का जवाब दिया। इस प्रकार शुरू हुई दोनों तरफ की गोलीबारी में दो आतंकवादी मारे गये तथा एक पकड़ा गया। श्री मोहन चन्द शर्मा ने आतंकवादियों से लड़ते हुये अनुकरणीय साहस और कर्तव्यपरायणता का प्रदर्शन किया तथा राष्ट्र के लिए सर्वोच्च बलिदान दिया।''
अब दूसरी ओर कांग्रेस महासचिव दिग्विजय सिंह के उस बयान को देखें जिसमें वह इस मुठभेड़ को फर्जी बताते हुए इसकी न्यायिक जांच की मांग की रट लगाये हुए हैं। यहां सवाल यह उठता है कि राष्ट्रपति की ओर से गणतंत्र दिवस पर जिस व्यक्ति को मरणोपरांत सम्मानित किया जा रहा हो और जिसकी वीरगाथा के ब्यौरे वाली सरकारी पत्रिका राज पथ पर वितरित की गयी हो, उसके अंशों पर यकीन किया जाए या फिर दिग्विजय सिंह जैसे बयानबाजी करने वाले नेता की बातों पर? सियासत के लिए नेता शहादत के महत्व को कैसे कम कर देते हैं इसकी मिसाल सिर्फ मोहन चन्द शर्मा के मामले में ही देखने को नहीं मिलती बल्कि दिग्विजय ने तो मुंबई हमले में मारे गये एटीएस प्रमुख हेमंत करकरे की शहादत पर भी अप्रत्यक्ष रूप से यह कहते हुए सवाल उठा दिया था कि वह मालेगांव धमाके की जांच के चलते कथित रूप से भगवा खेमे के निशाने पर थे। जबकि सच्चाई यह है कि करकरे आतंकवादियों की गोलीबारी में शहीद हुए थे।
दरअसल, दिग्विजय ने बटला मुठभेड़ मामले को ‘बोतल में बंद जिन्न’ के रूप में रखा हुआ है। जब कभी उन्हें जरूरत पड़ती है तो वह बोतल का ढक्कन खोल देते हैं। इस बार उन्होंने उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनावों में अल्पसंख्यकों के मत अपनी पार्टी को दिलाने के प्रयास में इस जिन्न को बाहर निकाला। जिन्न ने भी बाहर आते ही एक दूसरे को भिड़ाने का काम शुरू कर दिया है। दिग्विजय ने जब मुठभेड़ को एक बार फिर फर्जी बताते हुए कहा कि प्रधानमंत्री और गृहमंत्री इस मामले की न्यायिक जांच के पक्षधर नहीं थे तो तुरंत ही गृह मंत्री ने इस दावे का खंडन करते हुए मुठभेड़ को ‘असली’ करार दिया। प्रदेश में सरकार बनाने की दौड़ में अपने को आगे मान रही समाजवादी पार्टी के नेता आजम खां ने इस मामले में दिल्ली की शीला सरकार को घेरते हुए मुख्यमंत्री के खिलाफ मुकदमे और उन्हें जेल भेजने की मांग की तो भाजपा ने पूरे मामले पर श्वेतपत्र की तथा प्रधानमंत्री और कांग्रेस अध्यक्ष की प्रतिक्रिया की मांग की है। कुछ छुटभैये नेताओं को भी यह मामला अनुकूल लगा तो दिल्ली में चुनाव लड़ने के इच्छुक एक शख्स ने रातोंरात लोकप्रिय होने की चाहत में बटला मुठभेड़ पर योगगुरु स्वामी रामदेव की टिप्पणी से नारज होकर उन पर कालिख फेंक दी।
कांग्रेस पर पहले भी तुष्टिकरण की नीति अपनाने के आरोप लगते रहे हैं लेकिन हाल ही में पार्टी का ‘दोमुंहापन’ तब देखने को मिला जब केंद्रीय कानून मंत्री सलमान खुर्शीद ने उत्तर प्रदेश में सत्ता में आने पर मुसलमानों को पिछड़े वर्ग के कोटे से 9 प्रतिशत आरक्षण देने का वादा किया लेकिन कांग्रेस प्रवक्ता ने इसे उनका निजी विचार करार दिया। दिग्विजय ने बटला मुठभेड़ की असलियत पर सवाल उठाये तो गृह मंत्री ने मुठभेड़ को असली करार दिया। यदि यह ‘दोमुहांपन’ सिर्फ वोटों की ही खातिर है तो इसे काफी खतरनाक कहा जाएगा क्योंकि यह आतंकवादी ताकतों के आगे समर्पण करना ही माना जाएगा। उत्तर प्रदेश में अपनी पकड़ मजबूत करने में जुटी कांग्रेस को वह उदाहरण याद रखना चाहिए जिसमें भाजपा को विभिन्न चुनावों में अफजल को फांसी और आतंकवाद को मुद्दा बनाने का नतीजा भुगतना पड़ा।
दिग्विजय जोकि पूर्व में अंतरराष्ट्रीय आतंकवादी संगठन अल कायदा के सरगना ओसामा बिन लादेन को ‘ओसामाजी’ कह कर संबोधित कर चुके हैं, वह अल्पसंख्यकों के हित में जो कदम उठाना चाहते हैं वह सही भले हो लेकिन उस कदम को उठाने का तरीका कांग्रेस के लिए नुकसानदेह साबित हो सकता है। जनता यह जानना चाहती है कि जिस बटला मुठभेड़ को सरकार के अलावा तत्कालीन राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार एमके नारायणन और राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने असली बताया हो और अदालतों ने जिसकी जांच की मांग खारिज कर दी हो, उसके ‘फर्जी’ होने की बात दिग्विजय आखिर किस विशेषज्ञता के आधार पर कह रहे हैं?
जय हिंद, जय हिंदी
नीरज कुमार दुबे
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