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Thursday, 8 September 2011

आतंकवाद पसार रहा पांव, फेल हो रहे सरकारी दांव



देश की राजधानी दिल्ली फिर दहली, फिर मारे गये आम नागरिक, फिर शुरू हुई आरोप प्रत्यारोप की राजनीति, फिर बिठाई गई जांच, फिर सामने आई सुरक्षा में चूक की बात, फिर फेल हुई खुफिया एजेंसियां, फिर ढूंढा गया एक और घटना को बयान करने के लिए शार्टकट ‘9/7’ और इसके साथ ही अंत में हमने फिर नहीं सीखा कोई सबक। यह वाकई दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति है कि देश में आतंकवादी घटनाएं पांव पसारती जा रही हैं और केंद्र सरकार हाथ पर हाथ धरे बैठे है। जिन ‘कड़ी सुरक्षाओं’ और ‘सुरक्षा के पुख्ता प्रबंधों’ का हवाला दिया जा रहा है वह तो सिर्फ नेताओं, वीवीआईपी, होटलों और महत्वपूर्ण प्रतिष्ठानों तक ही सीमित हैं। नेताओं की सुरक्षा की तो समय समय पर समीक्षा की जाती है और उन्हें कभी जेड तो कभी वाई तो कभी एनएसजी तो कभी किसी और उच्च स्तर की सुरक्षा मुहैया करायी जाती है लेकिन आम जनता को तो भाग्य भरोसे छोड़ दिया गया है।

जनता की उच्च सुरक्षा की बात तो छोडि़ये स्थानीय पुलिस थानों में भी पर्याप्त कर्मी नहीं होते हैं जो इलाके पर नजर रख सकें। दिल्ली उच्च न्यायालय में हालांकि कड़ी सुरक्षा रहती है लेकिन जहां आम आदमी अंदर जाने के लिए प्रवेश पास बनवाता है उस स्थल की सुरक्षा का ख्याल किसी को नहीं आया। यही नहीं उच्च न्यायालय परिसर के भीतर तो सीसीटीवी कैमरा मौजूद हैं लेकिन जहां पर सिर्फ आम जनता को काम पड़ता है वहां इन कैमरों की व्यवस्था नहीं की गयी। इस बारे में दिल्ली पुलिस की ओर से कहा जा रहा है कि सीसीटीवी लगाने के लिए वह पहले ही सीपीडब्ल्यूडी को पत्र लिख चुकी है। यहां सवाल यह उठता है कि आम आदमी की जान की कोई कीमत इस सरकार और प्रशासन की नजर में है या नहीं? किसी भी घटना के बाद मुआवजा घोषित कर सरकार अपने कर्तव्यों की इतिश्री समझ लेती है लेकिन उन परिवारों से जाकर पूछिये जो ऐसी घटनाओं में अपने प्रियजनों को खो बैठते हैं कि उन पर क्या बीती है और क्या यह मुआवजा उनको हुए नुकसान की क्षतिपूर्ति कर सकता है?

दिल्ली उच्च न्यायालय के स्वागत कक्ष के बाहर हुए विस्फोट के तत्काल बाद एक पुलिस अधिकारी का टीवी चैनलों पर यह कहना कि वह एरिया हमारे कंट्रोल में नहीं था, बेहद आपत्तिजनक है। दिल्ली पुलिस की जिम्मेदारी पूरी दिल्ली की सुरक्षा की है ऐसे में यह कैसे कहा जा सकता है कि किसी परिसर के अमुक इलाके की सुरक्षा हमारे जिम्मे नहीं है। दिल्ली पुलिस की मुस्तैदी का पता भी इस बात से चलता है कि तीन महीने तेरह दिन पहले जिस जगह (दिल्ली उच्च न्यायालय के बाहर पार्किंग में) धमाका हुआ उस जगह की सुरक्षा के उसने क्या प्रबंध किये थे। 25 मई को हुए उस धमाके की जांच अब तक जारी है और पुलिस के हाथ पूरी तरह खाली हैं। मीडिया रिपोर्टों पर गौर करें तो दिल्ली में हुए पिछले कई धमाकों की जांच भी अभी चल ही रही है। यही नहीं दिल्ली पुलिस गृहमंत्री पी. चिदम्बरम के संसद में दिये गये उस बयान के बाद भी सवालों के घेरे में है, जिसमें गृहमंत्री ने कहा कि उसे खुफिया सूचना दी गयी थी। लेकिन पुलिस का कहना है कि यह सूचना 15 अगस्त के लिए थी। दिल्ली के उपराज्यपाल तेजिंदर खन्ना ने भी कहा है कि केंद्रीय गृह मंत्रालय की ओर से आतंकवादी हमले को लेकर खास खुफिया जानकारियां साझा नहीं की गई थीं। अब सवाल उठता है कि कौन सही बोल रहा है चिदम्बरम या फिर दिल्ली पुलिस और उपराज्यपाल? यह बात भी दिल्ली पुलिस के लिए यह शर्मनाक ही है कि धमाके की जांच एनआईए को सौंपी गयी। यह पहला ऐसा मामला है जिसकी जांच पहले ही दिन से एनआईए को सौंपी गयी। यह दर्शाता है कि शायद केंद्र सरकार को भी दिल्ली पुलिस की कार्यक्षमता पर संदेह नजर आ रहा है। हालांकि एनआईए का भी अब तक का कार्यकाल कोई उल्लेखनीय नहीं रहा है और कथित भगवा आतंकवाद के मामलों को छोड़कर वह देश में हुए विभिन्न आतंकवादी धमाकों के मामले में जांच ही कर रही है।

आतंकवादी हमलों के बाद खुफिया एजेंसियों की कार्यप्रणाली पर पहले भी सवाल उठते रहे हैं और अब भी उठ रहे हैं। इस कार्य में लगी सभी एजेंसियों के बीच आपसी समन्वय बढ़ाने और श्रेय लेने की होड़ को खत्म करने की जरूरत है। इन एजेंसियों की ओर से अपना दायरा बढ़ाने की भी तत्काल जरूरत है। आरोप लगते रहे हैं कि इन खुफिया एजेंसियों का सत्तारुढ़ दल विपक्षियों पर नजर रखने में उपयोग करते रहे हैं, यदि यह सही है तो यह चलन खत्म किया जाना चाहिए और उन्हें वही काम करने देना चाहिए जिसके लिए उनकी स्थापना हुई है।

दूसरी ओर गृहमंत्री पी. चिदम्बरम हर माह के आखिर में भले अपने मंत्रालय के कामकाज का ब्यौरा प्रस्तुत कर अन्य मंत्रियों की अपेक्षा ज्यादा पारदर्शी लगते हों लेकिन उनके कार्यकाल में पुणे, मडगांव, वाराणसी, मुंबई और दिल्ली में हुए धमाके (यहां उत्तर पूर्व में हुए कुछ धमाकों का उल्लेख नहीं है क्योंकि उनकी गूंज शायद सरकार के कानों में पड़ती ही नहीं है), उनके इन दावों की पोल खोलने के लिए काफी हैं कि ‘आतंकवाद से निपटने के लिए कड़े कदम उठाये गये हैं’। चिदंबरम को चाहिए कि वह गृहमंत्री के रूप में अपनी सारी ऊर्जा राजनीतिक प्रतिद्वंद्वियों पर ही नहीं खर्च करें। उन्होंने विस्फोट के बाद संसद में जो बयान दिया उसमें भी कोई नयी बात नहीं थी। उन्होंने घटना की जो जानकारी दी वह टीवी चैनलों पर पहले से दिखायी जा रही थी, उन्होंने कहा कि दिल्ली आतंकवाद के निशाने पर है, यह बात सभी जानते हैं। उन्होंने कहा कि आतंकवाद के खिलाफ एकजुट होना चाहिए, यह रटारटाया बयान है। संतोष इस बात का है कि उन्होंने मुंबई में हुए धमाकों के बाद दिल्ली में वह बयान नहीं दोहराया कि हम इतने समय तक शहर को विस्फोटों से बचाये रखने में सफल रहे।

जिस आतंकी संगठन हूजी ने दिल्ली में धमाके की जिम्मेदारी ली है उसकी ओर से कथित रूप से यह कहा गया है कि उसने संसद पर हमले के दोषी अफजल गुरु की रिहाई की मांग के लिये यह कदम उठाया है। यदि यह सही है तो इससे सरकार को चेतना चाहिए कि अफजल और कसाब जैसे कुख्यात आतंकवादियों को और पालना देश के लिए घातक हो सकता है। आतंकवादी अपने साथियों को छुड़ाने के लिए फिर कोई कंधार कांड या विस्फोटों को अंजाम दे सकते हैं। दिल्ली उच्च न्यायालय के बाहर विस्फोट कर आतंकवादियों ने अदालतों को भी यह संदेश देने की कोशिश की है कि वह आतंकी मामलों के दौरान फैसले सुनाते समय उनका भय ध्यान में रखें। लेकिन भारत की न्यायपालिका को वह शायद जानते नहीं जोकि निर्भय तथा बिना किसी दबाव में आकर पूरी निष्पक्षता के साथ फैसले सुनाती है।

यह आंकड़ा चौंकाने के साथ दुखद भी है कि पिछले छह वर्षों में आतंकवादियों ने दिल्ली को पांच बार निशाना बनाया, जबकि देश की वाणिज्यिक राजधानी मुम्बई को 1993 के बाद से 14 बार निशाना बनाया गया है। सरकार को चाहिए कि आगे ऐसी घटनाएं न दोहरायी जा सकें इसके लिए सुरक्षा और खुफिया तंत्र को मजबूत करने के साथ ही अपनी राजनीतिक इच्छाशक्ति को भी दृढ़ बनाये और एक कड़ा आतंकवाद निरोधक कानून बनाकर इसके लिए विशेष अदालतें स्थापित करे। सरकार को इस पर भी गौर करना चाहिए कि जहां आतंकवादी तकनीक के मामले में हमसे आगे निकलते जा रहे हैं वहीं हम विभिन्न विभागों को सीसीटीवी कैमरा स्थापित करने के लिए पत्र लिखने में ही व्यस्त हैं।

जय हिंद, जय हिंदी

नीरज कुमार दुबे

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