नारायणन ने टीवी समाचार चैनल सीएनएन-आईबीएन को दिये एक साक्षात्कार में यहां तक कहा था कि पाकिस्तान मुंबई के आतंकवादी हमलों पर उसी तरीके से तफ्तीश कर रहा है जैसी किसी जांच एजेंसी को करनी चाहिये। नारायण्ान ने सीएनएन आईबीएन के डेविल्स एडवोकेट कार्यक्रम में करण थापर से कहा- मैं जिस बात से अवगत हूं वह यह है कि सबूतों का दस्तावेज मिलने के बाद पाकिस्तान सरकार ने हमें जवाब दिया और कुछ सवाल पूछे जिनके जवाब हमने मुहैया करा दिए हैं। नारायणन ने कहा था कि जहां तक हमारा सवाल है हमारा मानना है कि पाकिस्तान सच तक पहुंचने की कोशिश कर रहा है।
यह संयोग ही है कि दोनों ओर के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकारों ने मुंबई आतंकवादी हमले को लेकर अपनी-अपनी सरकार की मुश्किलें बढ़ाईं। पाकिस्तान के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार मोहम्मद अली दुर्रानी ने जब यह स्वीकार किया कि मुंबई हमलों में शामिल एकमात्र जीवित गिरफ्तार आतंकवादी अजमल कसाब पाकिस्तानी है तो उन्हें प्रधानमंत्री युसूफ रजा गिलानी ने तत्काल बर्खास्त कर दिया। उस दौरान वहां खबरें आईं कि इस बर्खास्तगी के मामले को लेकर राष्ट्रपति आसिफ अली जरदारी प्रधानमंत्री से नाराज हैं क्योंकि उनके ध्यान में लाये बिना यह कार्रवाई की गई और इस संबंध में उन्हें मीडिया से ही ज्ञात हुआ। ऐसा ही कुछ भारत में भी हुआ जब यहां के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार ने कहा कि पाकिस्तान ने भारत के सबूतों पर जवाब भेजा है। जबकि गृह मंत्री और विदेश मंत्री ने इसके विपरीत बयान दिये। लेकिन दूसरी तरफ प्रधानमंत्री कार्यालय नारायणन के बचाव में उतर आया और बाकायदा एक विज्ञप्ति जारी कर पीएमओ ने सरकार के कर्ताधर्ताओं के बीच किसी मतभेद को नकारते हुये कहा कि नारायणन के बयान को गलत तरीके से पेश किया गया।
वाकई देश के सामने यह अजीब-सी स्थिति है कि वह किसकी बात पर भरोसा करे? मंत्रियों की बात का या फिर अधिकारियों की बात का। साफ है कि आतंकवाद के खिलाफ पुरजोर तरीके से लड़ने की बात कर रही सरकार में इस लड़ाई को लेकर एकता का अभाव है। वरना एक ही मसले पर सरकार के विभिन्न सुर नहीं होते।
यही नहीं यह भी अजीब-सी स्थिति है कि जो मंत्री कुछ समय पहले तक पाकिस्तान के खिलाफ सभी विकल्प खुले होने की बात कह रहे थे वही अब कह रहे हैं कि भारत के पास इंतजार करने के अलावा और कोई विकल्प नहीं है। गौरतलब है कि विदेश मंत्री प्रणव मुखर्जी ने सोमवार को कहा कि भारत ने अपनी ओर से पाकिस्तान को सबूत पेश कर दिये हैं और उसके जवाब का इंतजार करने के अलावा और कोई विकल्प नहीं है।
प्रणव ने कहा- कोई विकल्प नहीं है जबकि रक्षा मंत्री ए।के. एंटनी अभी भी कह रहे हैं कि भारत के सभी विकल्प खुले हैं। लेकिन वह यह नहीं बता रहे कि यह विकल्प कौन से हैं। यदि सभी विकल्प की बात हो रही है तो दो या तीन या फिर उससे भी ज्यादा विकल्प संभव हैं। इनमें से एक तो बता दीजिये सरकार ताकि लोगों को भरोसा हो सके कि आतंकवाद के खिलाफ आपकी लड़ाई सिर्फ कागजी नहीं है।
कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने जयपुर में एक रैली में कहा कि भारत आतंकवाद को नेस्तनाबूद कर देगा और पड़ोसी देश के मंसूबों को कामयाब नहीं होने देगा। लेकिन उन्होंने यह बताने से गुरेज किया कि उनकी सरकार ने आतंकवाद को रोकने के लिए अब तक क्या किया है। सरकार ने आतंकवादी गतिविधियों की रोकथाम के लिए पिछले दिनों जिस राष्ट्रीय जांच एजेंसी का गठन किया उसके विस्तार का काम बहुत ही धीमी गति (इस संबंध में दिनांक 4 फरवरी 2009 को नवभारत टाइम्स, दिल्ली ने खबर भी प्रकाशित की है।) से चल रहा है। इसलिए आतंकवाद के खिलाफ जनता को ही जागरूक होना पड़ेगा। याद करिये मुंबई की जनता का वह उदाहरण जिसके दबाव से महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री और उपमुख्यमंत्री तथा केंद्रीय गृहमंत्री को अपनी कुर्सी छोड़नी पड़ी। ऐसा ही दबाव संप्रग सरकार पर बनाया जाये ताकि वह चेते और आतंकवाद के खिलाफ वाकई कुछ करके दिखाये। सिर्फ रोज-रोज की बयानबाजी से कुछ हासिल होने वाला नहीं है।
नीरज कुमार दुबे
1 comment:
सही बात यह है कि राष्ट्रीय जांच एजेंसी का गठन अपने-आप में सिर्फ एक शोशा है. इसका गठन ही जनता का ध्यान भटकाने के लिए किया गया है. वरना पहले से मौजूद एज्ंसियां कोई कनम नहीं हैं इस काम के लिए. शर्त सिर्फ ये है कि उन्हें खउल कर काम करने दिया जाए.
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