आतंकवाद से निपटने के लिए संघीय एजेंसी बनाये जाने पर इन दिनों गृह मंत्रालय जुटा हुआ है। खबरों के अनुसार, इस एजेंसी का खाका भी तैयार कर लिया गया है जिसे संभवत: संसद सत्र में प्रस्तुत किया जायेगा। आतंकवाद से निपटने के लिए सरकार प्रयत्नशील दिख रही है यह अच्छी बात है। मनमोहन सरकार के समक्ष अब यह चुनौतीपूर्ण स्थिति है कि वह देश को दिखाये कि वाकई वह आतंकवाद के मुद्दे पर गंभीर है। क्योंकि इस सरकार ने अब तक आतंकवाद के खिलाफ कार्रवाई को साम्प्रदायिकता के चश्मे से देखा है।
मैं यहां किसी दल के पक्ष में राय नहीं व्यक्त कर रहा हूं। मैं तो आम जनमानस के मन की बात कह रहा हूं क्योंकि अहमदाबाद और मालेगांव में हुए बम विस्फोटों की बातें छोड़ दें तो जयपुर, दिल्ली और असम में हुए विस्फोटों को अंजाम देने वाले खुले घूम रहे हैं और शायद सरकार इन विस्फोटों को भूल भी चुकी हो। भूल तो वह मुंबई में हुए आतंकवादी हमलों को भी चुकी है यह बात तब उभर कर सामने आई जब गत सप्ताह कैबिनेट की बैठक के बाद केंद्रीय मंत्री कपिल सिब्बल ब्रीफिंग के लिये आये। पत्रकारों ने जब उनसे पूछा कि मुंबई हमलों के बारे में कैबिनेट में क्या चर्चा हुई तो उन्होंने कहा कि यह विषय बैठक में नहीं आया। जरा सोचिये, जिस विषय पर पूरी दुनिया इस समय चर्चा कर रही है हमारी कैबिनेट ने उस विषय पर चर्चा तक गवारा नहीं समझा। यह बात अलग है कि सरकार इस विषय को राजनयिक रूप से याद रखे हुए है और विभिन्न चैनलों की मदद से पाकिस्तान पर दबाव बना रही है।
हम सभी कहते रहे हैं कि भारत शक्तिशाली देश बनने की ओर अग्रसर है। दुनिया में विभिन्न क्षेत्रों में हमारी काबिलियत का डंका बज रहा है लेकिन जब अपनी सुरक्षा की बात आई है तो हम दूसरों से दबाव बनवा रहे हैं। क्या अमेरिका पर जब हमला हुआ तो उसने अफगानिस्तान पर दबाव बनाने के लिए किसी की मदद ली थी? क्या जब इजराइल पर गाजा पट्टी से कोई गोला दागा जाता है तो वह उसका त्वरित जवाब देने के लिए किसी की मदद लेता है? क्या रूस ने पिछले दिनों जार्जिया पर हमला करने के लिए किसी से पूछना भी मुनासिब समझा। पश्चिमी देशों और यूरोपीय देशों की नाराजगी को धता बताकर वह जार्जिया में अपनी कार्रवाई को अंजाम देने में सफल रहा। मैं यहां यह नहीं कह रहा कि इन सब उदाहरणों में से कौन-सी कार्रवाई सही थी और कौन-सी गलत। लेकिन इतना तो है कि जब खुद पर बात आई तो सबने पहले अपने देश की सुरक्षा को प्राथमिकता दी।
मैंने पिछले दिनों कई ऐसे ओपिनियन पोल देखे जिनमें देश की जनता ने पाकिस्तान के विरुध्द कार्रवाई के पक्ष में अपनी राय व्यक्त की थी लेकिन मुझे लगता है कि हमारे यहां राजनीतिक इच्छाशक्ति की कमी है। यह सही है कि हम वार्ता के जरिये समस्यायें हल करना चाहते हैं, पहला प्रयास यह होना भी चाहिये लेकिन हर बार यही प्रयास हो और उससे कोई हल नहीं निकले तो उस प्रयास को बदलना ही चाहिये। जैसे डॉक्टर किसी दवा के असर न करने पर मरीज के लिए नई दवा लिख देता है उसी प्रकार हमें भी अपना प्रयास बदलने की जरूरत है।
आज का भारत युवाओं का भारत है। इस भारत के युवाओं के सपने अच्छी नौकरी या खुद का व्यवसाय, मैट्रो शहर में अच्छा घर, कार तथा अन्य सुविधायें हैं। वह देश की तरक्की में अपनी मेहनत से योगदान देने को तत्पर है लेकिन उसे भ्रष्टाचार और आतंकवाद से मुक्त माहौल तो दीजिये।
आतंकवाद से निपटने के लिए सिर्फ बातों से काम नहीं चलेगा बल्कि अब कुछ कर के दिखाना होगा। आज वाकई देश में एक ऐसे सख्त आतंकवाद निरोधक कानून की जरूरत है जिससे कि आतंकवादियों के हौसले पस्त किये जा सकें। लेकिन यह भी सही है कि पूर्व में पोटा जैसा सख्त कानून होते हुए भी संसद पर हमला, कंधार कांड, जम्मू-कश्मीर विधानसभा पर हमला, अक्षरधाम मंदिर पर हमला और जम्मू में रघुनाथ मंदिर पर हमला तथा लालकिले पर हमला आदि घटनाएं हुई थीं और उस कानून को आतंकवाद से लड़ने की बजाय एक वर्ग विशेष के खिलाफ कानून के तौर पर ज्यादा देखा गया था।
लेकिन इसके बावजूद सख्त आतंकवाद निरोधी कानून की प्रासंगिकता खत्म नहीं हो जाती। आज आतंकवाद जिस तेजी से अपने पांव पसार रहा है ऐसे में राजनीतिक हित पूरे करने की सोच की बजाय देश के बारे में सोचना होगा। लेकिन सिर्फ कानून बना देने भर से ही काम नहीं चलने वाला। आतंकवाद से लड़ने की यदि दृढ़ इच्छाशक्ति हो और सख्त कानून को भेदभाव रहित तरीके से लागू करने की मंशा हो तो आतंकवाद से निपटना कोई असंभव कार्य नहीं है।
हमारे यहां लोग आतंकवाद से लड़ने के लिए टाडा या पोटा कानून को लेकर भले उलझे हुए हों लेकिन अमेरिका ने 11 सितम्बर को हुए आतंकवादी हमले से सीख लेते हुए पोटा से भी सख्त कानून 'यूएसए-पैट्रियोट एक्ट' 26 अक्टूबर 2001 को बनाया। इसका असर भी देखने को मिल रहा है कि भले ही अमेरिका के आतंकवादियों के निशाने पर होने की कितनी ही खबरें आती हों लेकिन अमेरिका में 11 सितम्बर के बाद से कोई आतंकवादी घटना नहीं घटी है साथ ही इस कानून से लोगों के अधिकारों का भी हनन नहीं हुआ है। यही नहीं लंदन में 7 जुलाई 2005 को हुए आतंकवादी हमलों के बाद ब्रिटेन ने भी 30 मार्च 2006 को सख्त कानून 'टेररिज्म एक्ट-2006' बनाया। फिलीपीन्स ने भी आतंकवाद की वैश्विक और क्षेत्रीय स्तर पर मिल रही चुनौतियों को ध्यान में रखते हुए फरवरी 2007 में सख्त आतंकवाद निरोधक कानून बनाया जिसे 'ह्यूमन सिक्योरिटी एक्ट ऑफ 2007' के नाम से जाना जाता है। इसके अलावा आस्ट्रेलिया में सत्तापक्ष और विपक्ष ने 2004 में आपस में सहयोग कर आतंकवाद निरोधी कानून बनाया। लेकिन अपने यहां विभिन्न दलों में इसको लेकर मतैक्य नहीं है।
नीरज कुमार दुबे
2 comments:
आतंकवाद विरोधी कानून बनाने से किसे परहेज है? मगर नागरिकों के स्वतंत्रता के अधिकार को बाधित कर के नहीं। पुलिस के सामने लिए गए कन्फेशन को सबूत मानने से तो सारा न्यायशास्त्र ही बदल जाएगा।
मेरे विचार में कानून बदलने की जरूरत नही। हमारी अन्वेषण एजेंसियों को धारदार और मजबूत बनाने की है। ऐसा हुआ तो मौजूदा कानूनों के रहते हुए ही आतंकवाद और अपराधी दोनों ही पनाह मांगने लगेंगे।
वैसे भी फिदायीन पर कानून क्या असर करेगा? उन्हें तो कुछ करने के पहले ही रोकना होगा। कुछ होने के पहले ही रोकना कानून के नहीं बल्कि हमारी पुलिस और रक्षा एजेंसियों का ही काम है।
पता नहीं यह कब बनेगी पर Quick..... करे कुछ बन तो रहा है जो तुंरत ही कुछ कर पाएगी.
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