छत्तीसगढ़ में नक्सलियों की ओर से किया गया राजनीतिक नरसंहार लोकतंत्र के लिए खतरे की घंटी है क्योंकि हिंसा के जरिए सत्ता परिवर्तन की चाह रखने वाले इसे अपनी एक बड़ी कामयाबी के रूप में देख रहे होंगे। इसे मात्र कांग्रेस पार्टी पर हमला नहीं माना जाना चाहिए क्योंकि यह समूची लोकतांत्रिक व्यवस्था को चुनौती है। छत्तीसगढ़ में लोकतांत्रिक ढंग से अपना अभियान चला रहे कांग्रेस के लगभग समूचे प्रदेश नेतृत्व का जिस वीभत्स तरीके से सफाया किया गया उसकी जितनी निंदा की जाए कम है। लेकिन सिर्फ इसी भर से काम नहीं चलने वाला। नक्सलियों को मुंहतोड़ जवाब देना भी जरूरी है। एक समय नक्सलियों से निपटने के लिए सेना की मदद लेने की बात उठी थी लेकिन तब कहा गया था कि अपने ही देशवासियों पर सेना की कार्रवाई ठीक नहीं रहेगी। लेकिन अब समय आ गया है जबकि हमें नक्सलियों/माओवादियों के मानव अधिकारों को एक ओर रख आरपार की लड़ाई लड़नी चाहिए। हो सकता है कि कुछ मानवाधिकार कार्यकर्ता इस पर आपत्ति उठाएं लेकिन उनकी परवाह नहीं की जानी चाहिए।
क्या यह कार्रवाई तालिबान द्वारा की जाने वाली कार्रवाइयों से कम बर्बर है जिसमें सलवा जुडूम अभियान को शुरू करने वाले कांग्रेस नेता महेंद्र कर्मा को बर्बर तरीके से मार दिया गया, प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष नंद कुमार पटेल और उनके बेटे को अगवा करने के बाद मार दिया गया, विद्याचरण शुक्ल तथा अन्य कांग्रेस नेताओं, कार्यकर्ताओं, सुरक्षाकर्मियों को गोलियों से छलनी कर दिया गया। अभी कुछ समय पहले ही नक्सलियों ने एक सीआरपीएफ जवान की हत्या के बाद उसके पेट में बम फिट कर दिया था ताकि जब उसके शव को हवाई मार्ग से ले जाया जाए तब वायुयान में विस्फोट हो और बड़ी तबाही हो सके।
यह नक्सली आखिर किस विकास की कमी का रोना रोते हैं? सरकार द्वारा बनाये जाने वाले पंचायत भवनों, स्कूलों, अस्पतालों और संचार टावरों को यह जब तब विस्फोट कर उड़ाते रहते हैं ताकि ग्रामीण आबादी तक विकास की बयार नहीं पहुंच सके। कई बार यह भी देखने में आया है कि हथियारों के बल पर यह ग्रामीणों को अपने पक्ष में बनाये रखते हैं। हथियारों को प्राप्त करने के लिए यह आईएसआई और कई अन्य विदेशी आतंकी संगठनों की सहायता भी लेते हैं। अपने ही देश के विरुद्ध जंग में शामिल यह लोग हिंसा के बल पर एक दिन सत्ता पाने की चाहत रखते हैं। जो भूमिका अफगानिस्तान में तालिबान, लेबनान में हिज्बुल्ला और यमन में अल कायदा चाहते हैं लगभग वैसा ही कुछ भारत में नक्सली भी चाहते हैं। इन उक्त आतंकी/उग्रवादी संगठनों के उद्देश्य या इतिहास भले अलग हो लेकिन कार्रवाइयां एक जैसी ही हैं। ऐसे में यह समय की मांग है कि राजनीतिक मतभेदों को परे रख एकजुट होकर नक्सलियों से निपटें और सेना तथा सुरक्षा बलों को और अधिकार प्रदान करें ताकि इन देश विरोधी और मानवता विरोधी तत्वों का तेजी से सफाया हो सके।
हालांकि ऐसा नहीं है कि नक्सली समस्या से निपटने की दिशा में किये जा रहे सरकार के प्रयास नाकाफी हों लेकिन आक्रामक एकीकृत रणनीति का जरूर अभाव दिखता है। उदाहरण के तौर पर यह हमला केन्द्रीय गृह सचिव आरके सिंह द्वारा संसद की एक समिति के समक्ष व्यक्त इस बयान के ठीक दो महीने बाद हुआ है कि माओवादी हिंसा की स्थिति में काफी परिवर्तन हुआ है। सिंह ने 28 मार्च 2013 को गृह मंत्रालय से संबंधित संसद की स्थायी समिति के समक्ष कहा था, ‘‘सभी राज्यों में स्थिति में परिवर्तन हुआ है और यह परिवर्तन बेहतरी के लिए हुआ है। छत्तीसगढ़ और झारखंड में स्थिति एकदम उलट गयी है और अब हम नक्सलवादी समूहों का पीछा कर रहे हैं।’' हालांकि संसदीय समिति ने स्थिति में सुधार की बात का समर्थन नहीं किया था।
सभी दलों को यह समझना होगा कि वामपंथी उग्रवाद भारत की आंतरिक सुरक्षा के लिए सबसे बड़ा खतरा है। इसलिए उनसे कोई सहानुभूति नहीं दशाई जानी चाहिए। पहले कई बार ऐसे वाकये हुए हैं जब कुछ दलों पर चुनावी लाभ के लिए माओवादियों का साथ लेने के आरोप लगते रहे हैं। देशद्रोह जैसे आरोप का सामना कर चुके विनायक सेन को केंद्र सरकार द्वारा योजना आयोग की एक समिति में लिया जाना भी शुद्ध राजनीति था। ऐसे वाकयों से इन लोगों का हौसला बढ़ता है इसलिए इनसे सभी को समान दूरी बनाकर चलना चाहिए। हमें चुनावी हार जीत की सोच से ऊपर उठते हुए देश के बारे में सोचना होगा क्योंकि माओवादी हमारे देश के लोकतांत्रिक ताने बाने को सीधी चुनौती दे रहे हैं। बंदूक के दम पर राजनीतिक सत्ता हासिल करने के उनके लक्ष्य को पूरा नहीं होने देने के लिए सभी को एकजुट होना पड़ेगा साथ ही उनकी विचारधारा को भी विभिन्न मंचों पर चुनौती दी जानी चाहिए ताकि ग्रामीण आबादी भी इस विचारधारा से नफरत कर सके।
बहरहाल, कांग्रेस नेताओं खासकर महेंद्र कर्मा की कमी नक्सल विरोधी आंदोलन से जुड़े लोगों को हमेशा खलेगी क्योंकि राजनीतिक हितों से ऊपर उठते हुए बतौर विपक्ष के नेता वह राज्य सरकार के नक्सलियों के खिलाफ अभियान में पूरा साथ देते थे। वह नक्सलियों की हिट लिस्ट में सबसे ऊपर थे इसके बावजूद उन्होंने कभी भी अपनी जान की परवान नहीं की और नक्सल विरोध का झंडा आजीवन बुलंद किये रहे और आखिर में शहीद हो गये। नक्सलियों के आगे नहीं झुकने वाले शहीदों को नमन।
नीरज कुमार दुबे
क्या यह कार्रवाई तालिबान द्वारा की जाने वाली कार्रवाइयों से कम बर्बर है जिसमें सलवा जुडूम अभियान को शुरू करने वाले कांग्रेस नेता महेंद्र कर्मा को बर्बर तरीके से मार दिया गया, प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष नंद कुमार पटेल और उनके बेटे को अगवा करने के बाद मार दिया गया, विद्याचरण शुक्ल तथा अन्य कांग्रेस नेताओं, कार्यकर्ताओं, सुरक्षाकर्मियों को गोलियों से छलनी कर दिया गया। अभी कुछ समय पहले ही नक्सलियों ने एक सीआरपीएफ जवान की हत्या के बाद उसके पेट में बम फिट कर दिया था ताकि जब उसके शव को हवाई मार्ग से ले जाया जाए तब वायुयान में विस्फोट हो और बड़ी तबाही हो सके।
यह नक्सली आखिर किस विकास की कमी का रोना रोते हैं? सरकार द्वारा बनाये जाने वाले पंचायत भवनों, स्कूलों, अस्पतालों और संचार टावरों को यह जब तब विस्फोट कर उड़ाते रहते हैं ताकि ग्रामीण आबादी तक विकास की बयार नहीं पहुंच सके। कई बार यह भी देखने में आया है कि हथियारों के बल पर यह ग्रामीणों को अपने पक्ष में बनाये रखते हैं। हथियारों को प्राप्त करने के लिए यह आईएसआई और कई अन्य विदेशी आतंकी संगठनों की सहायता भी लेते हैं। अपने ही देश के विरुद्ध जंग में शामिल यह लोग हिंसा के बल पर एक दिन सत्ता पाने की चाहत रखते हैं। जो भूमिका अफगानिस्तान में तालिबान, लेबनान में हिज्बुल्ला और यमन में अल कायदा चाहते हैं लगभग वैसा ही कुछ भारत में नक्सली भी चाहते हैं। इन उक्त आतंकी/उग्रवादी संगठनों के उद्देश्य या इतिहास भले अलग हो लेकिन कार्रवाइयां एक जैसी ही हैं। ऐसे में यह समय की मांग है कि राजनीतिक मतभेदों को परे रख एकजुट होकर नक्सलियों से निपटें और सेना तथा सुरक्षा बलों को और अधिकार प्रदान करें ताकि इन देश विरोधी और मानवता विरोधी तत्वों का तेजी से सफाया हो सके।
हालांकि ऐसा नहीं है कि नक्सली समस्या से निपटने की दिशा में किये जा रहे सरकार के प्रयास नाकाफी हों लेकिन आक्रामक एकीकृत रणनीति का जरूर अभाव दिखता है। उदाहरण के तौर पर यह हमला केन्द्रीय गृह सचिव आरके सिंह द्वारा संसद की एक समिति के समक्ष व्यक्त इस बयान के ठीक दो महीने बाद हुआ है कि माओवादी हिंसा की स्थिति में काफी परिवर्तन हुआ है। सिंह ने 28 मार्च 2013 को गृह मंत्रालय से संबंधित संसद की स्थायी समिति के समक्ष कहा था, ‘‘सभी राज्यों में स्थिति में परिवर्तन हुआ है और यह परिवर्तन बेहतरी के लिए हुआ है। छत्तीसगढ़ और झारखंड में स्थिति एकदम उलट गयी है और अब हम नक्सलवादी समूहों का पीछा कर रहे हैं।’' हालांकि संसदीय समिति ने स्थिति में सुधार की बात का समर्थन नहीं किया था।
सभी दलों को यह समझना होगा कि वामपंथी उग्रवाद भारत की आंतरिक सुरक्षा के लिए सबसे बड़ा खतरा है। इसलिए उनसे कोई सहानुभूति नहीं दशाई जानी चाहिए। पहले कई बार ऐसे वाकये हुए हैं जब कुछ दलों पर चुनावी लाभ के लिए माओवादियों का साथ लेने के आरोप लगते रहे हैं। देशद्रोह जैसे आरोप का सामना कर चुके विनायक सेन को केंद्र सरकार द्वारा योजना आयोग की एक समिति में लिया जाना भी शुद्ध राजनीति था। ऐसे वाकयों से इन लोगों का हौसला बढ़ता है इसलिए इनसे सभी को समान दूरी बनाकर चलना चाहिए। हमें चुनावी हार जीत की सोच से ऊपर उठते हुए देश के बारे में सोचना होगा क्योंकि माओवादी हमारे देश के लोकतांत्रिक ताने बाने को सीधी चुनौती दे रहे हैं। बंदूक के दम पर राजनीतिक सत्ता हासिल करने के उनके लक्ष्य को पूरा नहीं होने देने के लिए सभी को एकजुट होना पड़ेगा साथ ही उनकी विचारधारा को भी विभिन्न मंचों पर चुनौती दी जानी चाहिए ताकि ग्रामीण आबादी भी इस विचारधारा से नफरत कर सके।
बहरहाल, कांग्रेस नेताओं खासकर महेंद्र कर्मा की कमी नक्सल विरोधी आंदोलन से जुड़े लोगों को हमेशा खलेगी क्योंकि राजनीतिक हितों से ऊपर उठते हुए बतौर विपक्ष के नेता वह राज्य सरकार के नक्सलियों के खिलाफ अभियान में पूरा साथ देते थे। वह नक्सलियों की हिट लिस्ट में सबसे ऊपर थे इसके बावजूद उन्होंने कभी भी अपनी जान की परवान नहीं की और नक्सल विरोध का झंडा आजीवन बुलंद किये रहे और आखिर में शहीद हो गये। नक्सलियों के आगे नहीं झुकने वाले शहीदों को नमन।
नीरज कुमार दुबे
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