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Saturday, 23 July 2016

मानवता के दुश्मनों से निपटना जरूरी


ज्यूरिख में बंदूकधारी युवा के हमले में नौ नागरिकों के मारे जाने की घटना यूरोप में आम नागरिकों पर बमुश्किल एक सप्ताह में हुआ तीसरा हमला है। दोहरी नागरिकता रखने वाले 18 वर्षीय जर्मन-ईरानी ने एक मॉल में घुसकर अंधाधुंध गोलीबारी कर नौ लोगों को मौत के घाट उतारने के बाद आत्महत्या कर ली। इसी तरह की घटनाएँ कुछ और देशों में भी हाल फिलहाल देखने को मिली हैं, जो दर्शाती हैं कि बड़ी संख्या में युवा दिग्भ्रमित हो रहे हैं। ज्यादातर घटनाओं में देखा गया है कि हमलावरों का आईएसआईएस जैसे कुख्यात आतंकवादी संगठनों से सीधा संपर्क भले नहीं हो लेकिन उसकी विचारधारा के साथ खुद को जोड़ कर ही वह समाज के लिए घातक सिद्ध हो रहे हैं। म्यूनिख की घटना गृहयुद्ध की स्थिति वाले देशों से अन्य देशों में पलायन करने वाले लोगों की मुश्किलें भी बढ़ाएगी। उल्लेखनीय है कि जर्मनी ने पिछले साल रिकॉर्ड संख्या में 11 लाख शरणार्थियों एवं प्रवासियों को स्वीकार किया था।

इस अपराध को अंजाम देने के पीछे क्या मंशा थी, यह तो जाँच के बाद ही पता चलेगा लेकिन जिस नये प्रकार का आतंकवाद बढ़ रहा है उससे निपटने के लिए सभी देशों को मिलकर उपाय खोजने होंगे। खुद की जान की परवाह नहीं करने वाले ऐसे लोगों की संख्या बढ़ रही है जो अति धार्मिक हो जाने की स्थिति में और किसी खास विचारधारा से प्रभावित होकर लोगों की जान लेने पर उतारू हो जाते हैं। फ्रांस के नीस में ट्रक से लोगों को कुचल कर मारने की घटना हो, ढाका के रेस्त्रां में कुछ युवाओं की ओर से किये गये हमले की घटना हो या फिर म्यूनिख की घटना, तीनों में एक बात समान है कि हंसते खेलते लोगों को मौत की नींद सुला दिया गया।

जर्मनी में हुई इस घटना के बाद यूरोप के अन्य देशों पर भी आतंकवादी हमले होने की संभावना बढ़ गयी है। चुनौतीपूर्ण बात यह है कि हमले बड़े समूहों के माध्यम से नहीं बल्कि छोटे-छोटे गुटों या फिर एकल व्यक्ति के माध्यम से अंजाम दिये जा रहे हैं। हर नये हमले की वीभत्सता पिछले हमले से ज्यादा होती है। प्रश्न उठता है कि क्या इस गलत दिशा में जाने से लोगों को रोका नहीं जा सकता? विश्व के कई देश अपनी अपनी शक्तियों का बखान जब तब करते रहते हैं, उन्हें चाहिए कि इस समस्या का भी मिलबैठ कर तुरंत हल निकालें क्योंकि मानव जीवन से मूल्यवान वस्तु कुछ भी नहीं है। दिग्भ्रमित लोगों को वापस इस दुनिया से जोड़ देने से ही असल शक्ति की पहचान होगी।

भारत माता की जय
नीरज कुमार दुबे

Thursday, 11 February 2016

हेडली ने की पुष्टि 'आतंकवाद' पाक की सरकारी नीति


26/11 मामले में मुंबई की एक अदालत के समक्ष दी गई गवाही में पाकिस्तानी मूल के अमेरिकी आतंकवादी डेविड कोलमैन हेडली ने पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी आईएसआई, पाकिस्तान सेना और लश्कर-ए-तैयबा की मिलीभगत की बात उजागर की है। भारत के यह आरोप एक बार फिर साबित हो गये हैं कि आतंकवाद को शह और बढ़ावा देना पाकिस्तान की 'सरकारी' नीति बना हुआ है। भारत की ओर से संबंध सुधारने के कितने ही प्रयास क्यों न किये जाएं, पाकिस्तान की ओर से सदा पीठ में छुरा घोंपा जाता रहा है। बात कारगिल और पठानकोट तक ही सीमित नहीं है आईएसआई ने किस तरह से भारत में अपने नेटवर्क का जाल बिछाया हुआ है यह बात हाल ही में हुई कुछ गिरफ्तारियों से साबित हुई है। साथ ही पाकिस्तान की ओर से सीमा पार से लगते इलाकों में मादक पदार्थों की तस्करी जमकर की जा रही है और दुख की बात यह है कि इसमें कुछ अपने ही लोग तस्करों का साथ दे रहे हैं।

हैरानी होती है कि छोटी सी छोटी बात पर भी प्रतिक्रिया जताने वाला पाकिस्तान हेडली के खुलासों पर चुप क्यों है? और पाकिस्तानी मीडिया ने हेडली संबंधी खबरों से क्यों दूरी बनायी हुई है? पाकिस्तान को यह बताना चाहिए कि कैसे किसी आतंकवादी संगठन का सदस्य (हेडली) उसकी खुफिया एजेंसी और सेना के वरिष्ठ अधिकारियों के साथ बैठकें करता है और उनसे निर्देश प्राप्त कर काम को अंजाम पहुंचाता है? जबकि पाकिस्तान ने सार्वजनिक रूप से यह वादा कर रखा है कि वह अपनी धरती का इस्तेमाल किसी देश के खिलाफ आतंकी गतिविधियों के लिए नहीं होने देगा। मुंबई हमला मामले में अब यह बात साफ हो चली है कि कदम दर कदम आतंकियों को पाक रक्षा प्रतिष्ठान का पूरा समर्थन हासिल था और सरकारी एजेंसियों के बीच इस मामले में बेहतर तालमेल था। पाक रक्षा प्रतिष्ठान ने ना सिर्फ वित्तीय रूप से बल्कि सैन्य और मनोवैज्ञानिक रूप से भी लश्कर को पूरी मदद पहुंचाई थी।

उल्लेखनीय है कि हेडली ने स्वीकार किया है कि वह वर्ष 2006 की शुरूआत में आईएसआई के मेजर इकबाल से लाहौर में मिला था। मेजर इकबाल ने उसे भारत की खुफिया सैन्य जानकारी एकत्र करने के लिए कहा था। हेडली ने बताया है कि लश्कर-ए-तैयबा ने पहले ताज होटल में भारतीय रक्षा वैज्ञानिकों पर हमला बोलने की योजना बनाई थी और इस संगठन की मुंबई के प्रसिद्ध सिद्धिविनायक मंदिर पर भी हमले की योजना थी। यही नहीं मुंबई हमला दो असफल प्रयासों के बाद अंजाम दिया गया। इस हमले की पूरी कमान जकीउर रहमान लखवी ने हाफिज सईद के निर्देश पर संभाली थी।

इधर, भारत अब भी पठानकोट वायुसेना अड्डे पर हुए आतंकी हमला मामले पर पाकिस्तान की कार्रवाई रिपोर्ट का इंतजार कर रहा है और पाकिस्तान की ओर से उठ रहे विपरीत कदमों से दिन पर दिन चौंक भी रहा है। भारत में पाकिस्तान के उच्चायुक्त अब्दुल बासित ने हुर्रियत नेताओं के साथ मुलाकात कर और 'कश्मीर राग' अलाप कर भारत को एक बार फिर नाखुश करने का काम किया है। बताया जा रहा है कि हुर्रियत नेताओं ने इस मुलाकात में बासित से कहा कि दोनों देशों के बीच बातचीत होने से कश्मीरियों पर भारतीय सेना की ओर से किये जा रहे कथित अत्याचार से ध्यान हट जाता है।

हैरानी की एक और बात यह है कि जल्द ही होने वाले टी20 क्रिकेट वर्ल्ड कप के लिए पाकिस्तान क्रिकेट बोर्ड की ओर से आईसीसी से कहा गया है कि उनकी टीम को भारत में सुरक्षा का गंभीर खतरा है जबकि अभी भारत में चल रहे सैप खेलों में पाकिस्तान की टीम भाग ले रही है। साथ ही पाकिस्तान के गजल गायक गुलाम अली कोलकाता के बाद लखनऊ में अपना सफल कार्यक्रम पेश कर चुके हैं। यही नहीं पाकिस्तानी अभिनेत्री की बॉलीवुड फिल्म 'सनम तेरी कसम' पसंद की जा रही है।

पाकिस्तान को भारत के साथ संबंध सुधारने की सिर्फ बात करने की बजाय धरातल पर भी कुछ करके दिखाना चाहिए। पाकिस्तान को तय करना होगा कि उसे वार्ता सही में बहाल करनी है या उसकी राह में रोड़े अटकाते रहने का काम करना है। पठानकोट मामले में अमेरिका की ओर से साफ निर्देशों के बावजूद ऐसा लगता है कि प्रधानमंत्री नवाज शरीफ कोई कार्रवाई कर पाने में खुद को असमर्थ पा रहे हैं। पाकिस्तान से इस बात की उम्मीद करना बेमानी होगा कि वह अपनी अदालत में भी हेडली की गवाही कराने की अमेरिकी सरकार से अपील करे और इस मामले के दोषियों को सजा दिलाए। भारत को भी देखना होगा कि पाकिस्तान के अब तक के रुख पर गौर करने के बाद ही आगे कदम बढ़ाए साथ ही देश को सुरक्षा मामले पर और ध्यान देने की जरूरत है। हेडली का यह खुलासा ही अपने आप में सुरक्षा तंत्र में व्याप्त गंभीर खामी को उजागर करता है कि वह बिना किसी रोक टोक के मुंबई हमले से पहले सात बार और हमले के बाद एक बार भारत आया।

भारत माता की जय
नीरज कुमार दुबे


Monday, 3 August 2015

आतंकवाद के खिलाफ एकजुटता का आह्वान भर करते हैं हम

मुंबई में वर्ष 1993 में हुए सिलसिलेवार बम धमाकों के लिए दोषी ठहराये गये याकूब मेमन की फांसी पर हो रही राजनीति बेहद शर्मनाक है। जब हम यह कहते हैं कि आतंकवाद का कोई धर्म या जाति नहीं होती तो उस पर राजनीति भी नहीं होनी चाहिए। आतंकवाद मामलों के दोषी पर कड़ी से कड़ी कार्रवाई करनी ही चाहिए क्योंकि निरपराध लोगों की नृशंस हत्या करने वालों से नरमी बरती गयी या उनके समर्थन में उतरा गया तो इससे सही संदेश नहीं जाएगा। हम आतंकवाद के खिलाफ वैश्विक एकजुटता का आह्वान भर करते हैं जबकि इस मुद्दे पर हमारे देश में ही विचार बंटे हुए हैं। हमें देखना और समझना चाहिए कि अब सिर्फ खतरा ISI से नहीं बल्कि ISIS से भी है। इसलिए आतंकवाद मुद्दे पर राजनीति करना बंद कर इससे निपटने पर ध्यान लगाना चाहिए।

याकूब मेमन को दी गयी सजा की आलोचना करना सही नहीं दिखता क्योंकि उसे अपने बचाव में तर्क पेश करने के जितने मौके बनते थे, उससे ज्यादा दे दिये गये। अभूतपूर्व रूप से आधी रात को उच्चतम न्यायालय ने उसकी अर्जी पर सुनवाई की साथ ही राष्ट्रपति ने दूसरी बार उसकी दया याचिका पर गौर फरमाया। फांसी के बाद उसके घरवाले भी प्रशासन की बात मानते हुए अंतिम संस्कार से जुड़े सभी काम शांतिपूर्वक कर रहे थे। यही नहीं जो लोग मुंबई बम धमाकों में मारे गये थे, उनके परिजनों ने भी शांतिपूर्वक सब कुछ होते देखा लेकिन एकाएक कांग्रेस महासचिव दिग्विजय सिंह ने इस मुद्दे पर राजनीति की शुरुआत कर दी।

दिग्जिवजय सिंह ने ट्वीट किया- ‘‘याकूब मेमन को फांसी दी गयी। सरकार और न्यायपालिका ने आतंक के एक आरोपी को सजा देने में अनुकरणीय तत्परता और प्रतिबद्धता दिखाई।'' उन्होंने कहा, ‘‘मुझे उम्मीद है कि इसी तरह की प्रतिबद्धता सरकार और न्यायपालिका जाति और धर्म का ध्यान रखे बिना सभी मामलों में दिखाएगी।’’ सिंह यहीं नहीं रुके, उन्होंने आगे लिखा- ‘‘आतंकवाद के अन्य आरोपियों पर जिस तरह मामला चल रहा है उसको लेकर मेरे मन में संदेह है। आइये देखते हैं क्या होता है। सरकार और न्यायपालिका की साख दांव पर है।’’

इसमें कोई दो राय नहीं कि दिग्विजय ने अपनी टिप्पणी से उस उच्चतम न्यायालय की साख पर सवाल उठाया है जिसके दो दर्जन से ज्यादा न्यायाधीशों ने याकूब मेमन मामले पर गौर फरमाया और सभी ने मौत की सजा के फैसले को बरकरार रखा। साथ ही दिग्विजय ने न्यायालय की साख दांव पर कहकर पड़ोसी देश के उन लोगों को हमारी न्यायपालिका पर सवाल उठाने का मौका दे दिया है जो ऐसे मौके ढूंढते रहते हैं। दिग्विजय सिंह पूर्व में भी आतंकवाद से जुड़े विषयों पर विवादित टिप्पणी करते रहे हैं। एक बार तो उन्होंने अंतरराष्ट्रीय आतंकवादी ओसामा बिन लादेन को 'ओसामाजी' कहकर संबोधित किया था। बात उन्हीं तक सीमित रहती तो भी ठीक रहता लेकिन कांग्रेस के एक और नेता शशि थरूर जोकि विवाद पैदा करते रहने के लिए मशहूर हैं, ने इसे 'स्टेट स्पॉन्सर्ड किलिंग' करार दे दिया। उन्होंने यह कहने से पहले यह नहीं सोचा कि सजा सरकार ने नहीं बल्कि न्यायालय ने दी है।

असदुद्दीन ओवैसी की तरफ से इस सजा का विरोध चूंकि पहले से ही हो रहा था इसलिए सजा पर अमल के बाद उनका भड़कना तय माना जा रहा था। उन्होंने हालांकि न्यायालय के रुख पर कोई टिप्पणी तो नहीं की लेकिन कहा कि हम भी अपनी आंखों से देखना चाहेंगे कि गुजरात दंगों के दोषी माया कोडनानी और बाबू बजरंगी को कब फांसी पर लटकाया जाता है। समाजवादी पार्टी के वरिष्ठ नेता आजम खां ने जरूर इस बार चौंकाया क्योंकि उन्होंने याकूब मेमन की फांसी का विरोध कर रहे लोगों पर बांटने की राजनीति करने का आरोप लगाया। समाजवादी पार्टी ने एक और समझदारी तब दिखायी जब पार्टी के महाराष्ट्र के एक नेता ने जब याकूब की पत्नी को राज्यसभा में भेजने की मांग की तो उसे पार्टी पद से तत्काल हटा दिया गया।

जहां याकूब को फांसी देने के विरोध में बयान आ रहे थे तो फांसी का समर्थन करने को लेकर भी विवादित बयान आने ही थे। विहिप नेता प्रवीण तोगडिया ने कह दिया कि जो लोग फांसी का विरोध कर रहे हैं वह पाकिस्तान चले जाएं। भाजपा नेता रहे और वर्तमान में त्रिपुरा के राज्यपाल तथागत राय ने कह दिया कि खुफिया एजेंसियों को उन लोगों पर नजर रखनी चाहिए जो लोग मेमन के शव को सुपुर्द ए खाक करते वक्त वहां आए क्योंकि उन लोगों में कई संभावित आतंकवादी हो सकते हैं। भाजपा सांसद शत्रुघ्न सिन्हा याकूब मेमन को फांसी की सजा देने के विरोध में उतरे तो वरूण गांधी ने सवाल उठाया कि क्या अल्पसंख्यक वर्ग से जुड़े लोगों को ज्यादा फांसी दी गयी?

गृहमंत्री राजनाथ सिंह लोकसभा में गुरदासपुर हमले पर बयान देते हुए संप्रग सरकार की ओर से गढ़ी गयी संज्ञा 'हिन्दू आतंकवाद' का जिक्र कर एक नया विवाद छेड़ बैठे। उन्होंने कहा कि तत्कालीन गृहमंत्री के इस शब्द की आतंकवादी हाफिज सईद ने सराहना की थी। राजनाथ सिंह के बयान का प्रतिवाद करते हुए कांग्रेस की ओर से कहा गया कि आतंकवाद के मुद्दे पर हमें वह दल सीख देने की कोशिश ना करे जिसके नेता आतंकवादी को जहाज में लेकर कंधार गये थे। साफ है कि आतंकवाद मुद्दे पर राजनीति करते हुए एक दूसरे पर कीचड़ उछालना जारी रहेगा।

लेकिन इन दलों को चाहिए कि यदि पुरानी घटनाओं को वह भूल भी गये हों तो हाल ही में अमेरिकी अखबार 'यूएस टुडे' में प्रकाशित उस रिपोर्ट पर ध्यान दे लें जिसमें बताया गया है कि आईएसआईएस की ओर से भारत में हमले की तैयारियां चल रही हैं और उसमें भविष्यवाणी की गई है कि यह हमला अमेरिका को ऐतिहासिक टकराव के लिए उकसाएगा। रिपोर्ट के मुताबिक आईएस भारत में कई भारतीयों को आतंकी बनाने का जिम्मा सौंप चुका है। विदेशों में रह रहे भारतीय भी आईएस के 'मिशन इंडिया' को कामयाब बनाने के लिए लग गए हैं। इनके निशाने पर ऐसे मुस्लिम युवा हैं जो मुस्लिम राष्ट्र का ख्वाब देखते हैं। आईएस के निशाने पर नेट सैवी मुस्लिम युवा ज्यादा हैं। साथ ही हाल ही में भारतीय सेना की ओर से भी देश में आईएसआईएस की बढ़ती पैठ को लेकर चिंता जताई गई थी।

आतंकवाद देश में फिर से अपना सिर उठाने की ताक में है क्योंकि पिछले सप्ताह पंजाब के गुरदासपुर में जो आतंकवादी हमला हुआ था उसके भी तार पाकिस्तान से जुड़ते हुए दिखे हैं। गृह मंत्री राजनाथ सिंह ने राज्यसभा में बताया कि ‘‘जीपीएस आंकड़ों के प्रारंभिक अध्ययन से संकेत मिलते हैं कि हमलावर तीन आतंकवादियों ने पाकिस्तान से गुरदासपुर जिले के तास क्षेत्र से घुसपैठ की। इसी क्षेत्र से रावी नदी पाकिस्तान में प्रवेश करती है।’’ इन्हीं आतंकवादियों ने जम्मू पठानकोट रेल मार्ग पर दीनानगर और झकोलदी के बीच तलवंडी गांव के पास पांच आईईडी लगाये। राज्य पुलिस ने मृत आतंकवादियों के पास से तीन एके 47 राइफल, 19 मैगजीन और दो जीपीएस सहित भारी मात्रा में अवैध सामग्री बरामद की है जिसका विश्लेषण किया जा रहा है।

बहरहाल, आतंकवाद मुद्दे पर राजनेताओं की विवादित टिप्पणियां उन लोगों का ‘अपमान’ है, जो आतंकवाद से छुटकारा पाना चाहते हैं। इस मुद्दे पर किसी भी तरह की राजनीति खेदजनक है। न्यायिक प्रक्रिया पर सवाल उठाने की कोशिश करना ठीक नहीं है। जो लोग आज सवाल उठा रहे हैं उन्हें तभी हस्तक्षेप करना चाहिए जब मामलों की सुनवाई हो रही होती है। ऐसे समय पर किसी मुद्दे पर बहस नहीं करनी चाहिए, जब कि उसका निपटान हो चुका है। याकूब मामले में तो सरकार ने थोड़ी उदारता भी दिखाई क्योंकि अफजल गुरु की तरह उसका शव जेल परिसर में ही नहीं दफनाकर उसे उसके परिवार वालों को सौंप दिया गया। आतंकवाद मुद्दे पर राजनीति की जगह बहस इस मुद्दे पर होनी चाहिए कि फांसी की सजा का प्रावधान होना चाहिए या नहीं, इस पर नहीं कि इसको फांसी होनी चाहिए और उसको नहीं।

भारत माता की जय
नीरज कुमार दुबे

Thursday, 20 February 2014

राजीव हत्याकांडः यह सजा में रियायत है या सियासत?

राजीव गांधी हत्याकांड के दोषियों को रिहा करने का तमिलनाडु सरकार का फैसला ना सिर्फ आतंकवाद के खिलाफ देश के अभियान पर चोट है बल्कि देश के लोकप्रिय प्रधानमंत्री रहे राजीव गांधी के साथ एक बड़ा अन्याय भी है। इस तरह के फैसलों के खतरनाक परिणाम हो सकते हैं। राजीव गांधी की हत्या देश पर हमला था और देश के हमलावरों को किसी भी सूरत में माफ नहीं किया जाना चाहिए। ऐसे लोगों का कोई मानवाधिकार नहीं होता जिन्होंने अमानवीय और बर्बरतापूर्वक तरीके से किसी की जान ली या उसे क्षति पहुंचाई। हमारे सभी धार्मिक ग्रंथों की कथा-कहानियों में भी दर्शाया गया है कि दैत्यों, राक्षसों के साथ देवताओं ने भी कोई रियायत नहीं बरती। जिस हमले में पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी के शरीर के सभी अंग इधर उधर बिखर गये, उसकी भयावहता का सहज अंदाजा लगाया जा सकता है, ऐसे में इसे अंजाम देने वालों के साथ रियायत की बात सोची भी नहीं जानी चाहिए। तमिलनाडु सरकार ने कानून के शासन में विश्वास रखने वाले और देशभक्त भारतीयों की आस्था को हिला दिया है। उच्चतम न्यायालय ने इन दोषियों की रिहाई पर रोक लगाकर एकदम सही किया है।


हालांकि इससे पहले भी ऐसे वाकये होते रहे हैं। तमिलनाडु सरकार पूर्व में राजीव हत्या के दोषियों को फांसी की सजा नहीं देने का प्रस्ताव राज्य विधानसभा में पास करा चुकी है। देवेंद्र पाल सिंह भुल्लर को फांसी की सजा से माफी दिलाने के लिए पंजाब के मुख्यमंत्री सहित कई बड़े नेता पहल कर चुके हैं। उमर अब्दुल्ला के एक ट्वीट के बाद जम्मू कश्मीर विधानसभा में एक विधायक अफजल गुरु को फांसी की सजा से माफी दिलाने संबंधी प्रस्ताव ला चुका है और मदनी को राहत दिलाने की पहल केरल सरकार की ओर से की जा चुकी है।


यह सही है कि फांसी से बचने की दया याचिका पर वर्षों तक फैसला नहीं कर पाने में सरकार यदि ढिलाई बरतती है तो दोषी व्यक्ति राहत की मांग कर सकता है लेकिन यह भी सही है कि फांसी की सजा दुर्लभ मामलों में ही सुनाई जाती है, और फिर यह तो दुर्लभतम मामला था। राष्ट्र यह नहीं भूल सकता कि उसने न सिर्फ अपना प्रधानमंत्री खोया है बल्कि 17 अन्य भारतीय नागरिकों की भी उस हमले में जान गयी। राजीव के हत्यारों की रिहाई का फैसला किसी भी तरह के आतंकवाद से लड़ने और उसे हराने के हमारे सामूहिक राष्ट्रीय संकल्प के सामने भी गंभीर सवाल खड़े करता है। साथ ही यह घटनाक्रम अफजल गुरु के मुद्दे को फिर से जिंदा कर गया है।
जयललिता सरकार अपने इस फैसले के पीछे मानवीय आधार बता रही है जबकि इसके पीछे है पूरी तरह राजनीतिक आधार। उनके मुख्य प्रतिद्वंद्वी एम. करुणानिधि ने उच्चतम न्यायालय के फैसले के बाद राजीव के हत्यारों की रिहाई की मांग क्या कर दी, जयललिता कैबिनेट ने पहले राजनीतिक लाभ लेने के लिए रिहाई का तत्काल फैसला कर इसकी सूचना विधानसभा में दे दी और केंद्र को इस पर अपनी राय देने के लिए तीन दिन का समय निर्धारित कर दिया। लोकसभा चुनावों को दृष्टिगत रखते हुए राज्य के सभी दलों की निगाहें तमिल मतों पर लगी हुई हैं। इसके लिए वह किसी भी हद तक जाने को तैयार हैं। यदि दोषियों को तमिल होने के नाते छोड़ने की मांग की जा रही है तो यह नहीं भूलना चाहिए कि राजीव जी के साथ मरने वालों में तमिल भी थे। जयललिता को यह याद रखना चाहिए कि इस मामले में जिनकी हत्या हुई है वह एक समय देश की सरकार के संवैधानिक प्रमुख थे। उन्होंने जो फैसला किया है वह भविष्य में दूसरे मुख्यमंत्रियों या संवैधानिक पदाधिकारियों के लिए कानून से परे जाकर निर्णय लेने की मिसाल बन जाएगा। जया सरकार के इस फैसले के चलते केंद्र और राज्य के बीच भी ठन गई है क्योंकि गृह मंत्रालय के मुताबिक सजा को माफ करने का अधिकार भी केंद्र सरकार को ही है, इसलिए राज्य सरकार अपराधियों को जेल से आजाद नहीं कर सकती। यही नहीं जिस मामले की जांच केंद्रीय एजेंसियों ने की और जो मामला केंद्र में चला उस मामले के दोषी को रिहा करने का अधिकार राज्य सरकार को है ही नहीं क्योंकि वह राज्य की जेल में बंद केंद्र के कैदी हैं।


भारत के पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी की निर्मम हत्या जैसे गंभीर अपराध की उपेक्षा भारी पड़ सकती है। यह परिपाटी चल निकली तो कल को कोई सरकार अपने राजनीतिक लाभ के लिए यासीन भटकल या सिमी नेताओं या अन्य आतंकवादियों की रिहाई भी कर सकती है। भारत ने आतंकवाद के खिलाफ जो कड़ा रुख अपना रखा है उसको बरकरार रखे जाने की जरूरत है। यह सही रहा कि कांग्रेस, भाजपा सहित अधिकतर बड़े दलों ने जया सरकार के इस फैसले को गलत बताया है और सरकार ने इसके खिलाफ उच्चतम न्यायालय में गुहार लगाई है। उम्मीद है कि इन दोषियों की रिहाई रुक सकेगी।


हालांकि इस मामले में कांग्रेस के राजनीतिक पैंतरों पर भी सवाल खड़े होते हैं। दस वर्षों तक उसके नेतृत्व वाली सरकार केंद्र में रही और उसने राजीव के हत्यारों की दया याचिका पर निर्णय टाले रखा जबकि अन्य कुछ मामलों में उसने फैसला लिया। कांग्रेस नेता मणिशंकर अय्यर ने पूर्व में राजीव हत्या के दोषियों की सजा कम करने की पैरवी की। 2008 में प्रियंका गांधी चेन्नई जेल में बंद नलिनी से मानवीय आधार पर मिल कर आईं। कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने नलिनी की सजा कम कराई और जब जब चुनाव सिर पर हैं, ऐसे में रिहाई के फैसले के जरिये कांग्रेस भावनाओं को उभारने के प्रयास में है। अमेठी में मौजूद कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी ने इस मुद्दे को उठाते हुए कहा कि जब एक प्रधानमंत्री के साथ न्याय नहीं हो सकता तो आम आदमी को कैसे न्याय मिलेगा। हालांकि उन्होंने इससे पहले दोषियों की सजा मृत्युदंड से कम कर उम्रकैद किये जाने पर कुछ नहीं कहा था। अब प्रधानमंत्री सहित सरकार का एक एक मंत्री, कांग्रेस का एक एक पदाधिकारी इसके खिलाफ जिस तरह बोल रहा है वह उनका हक तो है लेकिन यह राजनीतिक मंशा भी जाहिर करता है।


बहरहाल, जहां तक बात मौत की सजा के नैतिक पक्ष की है तो यह सही है कि दुनिया भर में इसका प्रचलन कम हो रहा है और मीडिया रिपोर्टों के आंकड़ों के मुताबिक 140 देश फांसी की सजा को हटा चुके हैं। अपने देश में भी फांसी की सजा को खत्म करने की बहस वर्षों से चल रही है लेकिन किसी तार्किक अंजाम तक नहीं पहुंच पायी है। जब तक इस मामले में कोई एकराय नहीं बन जाती तब तक जघन्य अपराधों, कांडों में शामिल लोगों की सजा पर कोई राजनीति नहीं होनी चाहिए क्योंकि इससे सिर्फ आतंकवादियों और अपराधियों का हौसला ही बुलंद होगा क्योंकि उन्हें पता है कि पहले तो मुकदमा वर्षों तक चलेगा और जब सजा सुना भी दी जायेगी तो राजनीतिक कारणों से इसमें विलंब होता रहेगा और फिर इसी विलंब को आधार बनाकर वह आजाद हो जाएंगे।


भारत माता की जय
नीरज कुमार दुबे
  
   

Friday, 30 August 2013

हत्यारे यासीन भटकल पर राजनीति अच्छी बात नहीं

भारत-नेपाल सीमा से गिरफ्तार इंडियन मुजाहिदीन के आतंकवादी यासीन भटकल को लेकर भी राजनीति शुरू हो गयी है। अंग्रेजी समाचारपत्र टाइम्स ऑफ इंडिया के दिनांक 30 अगस्त 2013 के अंक में प्रकाशित एक खबर के अनुसार बिहार पुलिस ने अपनी हिरासत के दौरान यासीन से कोई पूछताछ नहीं की। एनआईए ने केस दर्ज करने और यासीन को अपनी हिरासत में लेने के बाद उससे पूछताछ की। यहां सवाल खड़ा होता है कि जबकि यासीन और उसका संगठन हाल ही में बोधगया में हुए श्रृंखलाबद्ध बम धमाकों के मामले में संदिग्ध है तो फिर क्यों पूछताछ नहीं की गयी? कहीं यह एक वर्ग के वोटों की खातिर तो नहीं किया गया। मुख्यमंत्री नीतीश कुमार धर्मनिरपेक्ष दिखने के प्रयास में तो पुलिस को ऐसा कोई आदेश नहीं दे बैठे?

 
दूसरी ओर दिल्ली में केंद्रीय राज्य मंत्री राजीव शुक्ला ने इस बड़ी गिरफ्तारी का श्रेय सरकार को देते हुए कहा है कि राजग के कार्यकाल में आतंकवादी वारदातें हो रही थीं और इस सरकार के राज में आतंकवादी गिरफ्तार किये जा रहे हैं। ''पहले अब्दुल करीम टुंडा को पकड़ा गया और अब भटकल को।'' शुक्ला जी को वह परिस्थितियां याद करनी चाहिएं जब आतंकवादी अपनी साजिशों को अंजाम देने में सफल हो जाते हैं और सरकारें खुफिया तंत्र की 'विफलता' के नाम पर हुए खुद को बचा ले जाती हैं। अब जबकि यह कामयाबी सुरक्षा एजेंसियों और खुफिया तंत्र की है तो नेता लोग अपनी पीठ ठोकने में लग गये।
 
इसमें कोई दो राय नहीं कि हमारी अदालतें इंडियन मुजाहिदीन की साजिशों के शिकार लोगों को न्याय प्रदान करेंगी और भटकल तथा उसके साथियों को सर्वाधिक कड़ी सजा सुनाएंगी। फिलहाल सरकार को चाहिए कि वह इस मामले की जल्द से जल्द सुनवाई करवाने का प्रबंध करे और भटकल को सुनाई जाने वाली सजा पर भी फौरन अमल किया जाए ताकि इंडियन मुजाहिदीन की कमर पूरी तरह टूट सके। भटकल की गिरफ्तारी से उसका संगठन उसी तरह कमजोर होगा जिस तरह ओसामा बिन लादेन के मारे जाने के बाद अल कायदा और हकीमुल्ला महसूद के मारे जाने के बाद पाकिस्तान तालिबान कमजोर हुआ। हालांकि यह संगठन अभी भी आतंकी वारदातों को अंजाम देने में लगे हुए हैं लेकिन पहले के मुकाबले इनकी ताकत तो कम हुई ही है। भटकल भारत के लिए ओसामा या महसूद से कम नहीं है क्योंकि उस पर विभिन्न आतंकी हमलों में 250-300 लोगों को मारने का आरोप है।
 
भटकल उर्फ मोहम्मद अहमद सिद्धिबप्पा की गिरफ्तारी एक बड़ी कामयाबी तो है लेकिन हमें इस बात को लेकर 'जश्न' मनाते समय सावधानी बरतनी चाहिए। भटकल को गिरफ्तारी के समय जब गाड़ी से लाया जा रहा था तो चेहरा ढंका हुआ होने के बावजूद वह एक उंगली से कोई इशारा कर रहा था। संभव है कि यह इशारा वह अपने स्लीपर सेल को कर रहा हो और इसके माध्यम से कोई संदेश दे रहा हो। मीडिया को वह दृश्य नहीं दिखाना चाहिए था। मुंबई हमले के दौरान हमारे मीडिया के लाइव कवरेज प्रेम का फायदा ही सीमा पार बैठे आतंकी उठा रहे थे फिर भी सबक नहीं लिया गया है। सुरक्षा एजेंसियों को उसे लेकर काफी सतर्कता बरतनी होगी क्योंकि कुशाग्र बुद्धि वाला भटकल कई बार उन्हें चकमा दे चुका है और एक बार तो कोलकाता पुलिस की गिरफ्त में आने के बाद भी वह छूट चुका है।

इंडियन मुजाहिदीन की आतंकी साजिशों में मारे गये लोगों के परिजनों को इस बात से कुछ सुकून मिल सकता है कि उनसे उनके पि्रयजन छीनने वाला पकड़ा गया और अब सजा भोगेगा। भटकल और उसके साथियों ने जिन बच्चों से उनके माता पिता, जिन माता पिताओं से उनके बच्चे, जिन महिलाओं से उनके पति या जिन पतियों से उनकी पत्नी, जिन बुजुर्गों से उनके जीवन का सहारा छीन लिया  वह पीडि़त आज भी पल पल न्याय की आस में हैं। इसलिए इस मामले की शीघ्र सुनवाई होनी चाहिए। सुरक्षा एजेंसियों को अब चाहिए कि वह भटकल के अन्य महत्वपूर्ण साथियों इकबाल और रियाज भटकल को भी पकड़ने का प्रयास करें, इनके बारे में माना जाता है कि वे कराची में छिपे हैं।


भारत माता की जय
नीरज कुमार दुबे


 
 

Monday, 27 May 2013

नक्सलियों से आरपार की लड़ाई का वक्त आया

छत्तीसगढ़ में नक्सलियों की ओर से किया गया राजनीतिक नरसंहार लोकतंत्र के लिए खतरे की घंटी है क्योंकि हिंसा के जरिए सत्ता परिवर्तन की चाह रखने वाले इसे अपनी एक बड़ी कामयाबी के रूप में देख रहे होंगे। इसे मात्र कांग्रेस पार्टी पर हमला नहीं माना जाना चाहिए क्योंकि यह समूची लोकतांत्रिक व्यवस्था को चुनौती है। छत्तीसगढ़ में लोकतांत्रिक ढंग से अपना अभियान चला रहे कांग्रेस के लगभग समूचे प्रदेश नेतृत्व का जिस वीभत्स तरीके से सफाया किया गया उसकी जितनी निंदा की जाए कम है। लेकिन सिर्फ इसी भर से काम नहीं चलने वाला। नक्सलियों को मुंहतोड़ जवाब देना भी जरूरी है। एक समय नक्सलियों से निपटने के लिए सेना की मदद लेने की बात उठी थी लेकिन तब कहा गया था कि अपने ही देशवासियों पर सेना की कार्रवाई ठीक नहीं रहेगी। लेकिन अब समय आ गया है जबकि हमें नक्सलियों/माओवादियों के मानव अधिकारों को एक ओर रख आरपार की लड़ाई लड़नी चाहिए। हो सकता है कि कुछ मानवाधिकार कार्यकर्ता इस पर आपत्ति उठाएं लेकिन उनकी परवाह नहीं की जानी चाहिए।

क्या यह कार्रवाई तालिबान द्वारा की जाने वाली कार्रवाइयों से कम बर्बर है जिसमें सलवा जुडूम अभियान को शुरू करने वाले कांग्रेस नेता महेंद्र कर्मा को बर्बर तरीके से मार दिया गया, प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष नंद कुमार पटेल और उनके बेटे को अगवा करने के बाद मार दिया गया, विद्याचरण शुक्ल तथा अन्य कांग्रेस नेताओं, कार्यकर्ताओं, सुरक्षाकर्मियों को गोलियों से छलनी कर दिया गया। अभी कुछ समय पहले ही नक्सलियों ने एक सीआरपीएफ जवान की हत्या के बाद उसके पेट में बम फिट कर दिया था ताकि जब उसके शव को हवाई मार्ग से ले जाया जाए तब वायुयान में विस्फोट हो और बड़ी तबाही हो सके।

यह नक्सली आखिर किस विकास की कमी का रोना रोते हैं? सरकार द्वारा बनाये जाने वाले पंचायत भवनों, स्कूलों, अस्पतालों और संचार टावरों को यह जब तब विस्फोट कर उड़ाते रहते हैं ताकि ग्रामीण आबादी तक विकास की बयार नहीं पहुंच सके। कई बार यह भी देखने में आया है कि हथियारों के बल पर यह ग्रामीणों को अपने पक्ष में बनाये रखते हैं। हथियारों को प्राप्त करने के लिए यह आईएसआई और कई अन्य विदेशी आतंकी संगठनों की सहायता भी लेते हैं। अपने ही देश के विरुद्ध जंग में शामिल यह लोग हिंसा के बल पर एक दिन सत्ता पाने की चाहत रखते हैं। जो भूमिका अफगानिस्तान में तालिबान, लेबनान में हिज्बुल्ला और यमन में अल कायदा चाहते हैं लगभग वैसा ही कुछ भारत में नक्सली भी चाहते हैं। इन उक्त आतंकी/उग्रवादी संगठनों के उद्देश्य या इतिहास भले अलग हो लेकिन कार्रवाइयां एक जैसी ही हैं। ऐसे में यह समय की मांग है कि राजनीतिक मतभेदों को परे रख एकजुट होकर नक्सलियों से निपटें और सेना तथा सुरक्षा बलों को और अधिकार प्रदान करें ताकि इन देश विरोधी और मानवता विरोधी तत्वों का तेजी से सफाया हो सके।

हालांकि ऐसा नहीं है कि नक्सली समस्या से निपटने की दिशा में किये जा रहे सरकार के प्रयास नाकाफी हों लेकिन आक्रामक एकीकृत रणनीति का जरूर अभाव दिखता है। उदाहरण के तौर पर यह हमला केन्द्रीय गृह सचिव आरके सिंह द्वारा संसद की एक समिति के समक्ष व्यक्त इस बयान के ठीक दो महीने बाद हुआ है कि माओवादी हिंसा की स्थिति में काफी परिवर्तन हुआ है। सिंह ने 28 मार्च 2013 को गृह मंत्रालय से संबंधित संसद की स्थायी समिति के समक्ष कहा था, ‘‘सभी राज्यों में स्थिति में परिवर्तन हुआ है और यह परिवर्तन बेहतरी के लिए हुआ है। छत्तीसगढ़ और झारखंड में स्थिति एकदम उलट गयी है और अब हम नक्सलवादी समूहों का पीछा कर रहे हैं।’' हालांकि संसदीय समिति ने स्थिति में सुधार की बात का समर्थन नहीं किया था।

सभी दलों को यह समझना होगा कि वामपंथी उग्रवाद भारत की आंतरिक सुरक्षा के लिए सबसे बड़ा खतरा है। इसलिए उनसे कोई सहानुभूति नहीं दशाई जानी चाहिए। पहले कई बार ऐसे वाकये हुए हैं जब कुछ दलों पर चुनावी लाभ के लिए माओवादियों का साथ लेने के आरोप लगते रहे हैं। देशद्रोह जैसे आरोप का सामना कर चुके विनायक सेन को केंद्र सरकार द्वारा योजना आयोग की एक समिति में लिया जाना भी शुद्ध राजनीति था। ऐसे वाकयों से इन लोगों का हौसला बढ़ता है इसलिए इनसे सभी को समान दूरी बनाकर चलना चाहिए। हमें चुनावी हार जीत की सोच से ऊपर उठते हुए देश के बारे में सोचना होगा क्योंकि माओवादी हमारे देश के लोकतांत्रिक ताने बाने को सीधी चुनौती दे रहे हैं। बंदूक के दम पर राजनीतिक सत्ता हासिल करने के उनके लक्ष्य को पूरा नहीं होने देने के लिए सभी को एकजुट होना पड़ेगा साथ ही उनकी विचारधारा को भी विभिन्न मंचों पर चुनौती दी जानी चाहिए ताकि ग्रामीण आबादी भी इस विचारधारा से नफरत कर सके।

बहरहाल, कांग्रेस नेताओं खासकर महेंद्र कर्मा की कमी नक्सल विरोधी आंदोलन से जुड़े लोगों को हमेशा खलेगी क्योंकि राजनीतिक हितों से ऊपर उठते हुए बतौर विपक्ष के नेता वह राज्य सरकार के नक्सलियों के खिलाफ अभियान में पूरा साथ देते थे। वह नक्सलियों की हिट लिस्ट में सबसे ऊपर थे इसके बावजूद उन्होंने कभी भी अपनी जान की परवान नहीं की और नक्सल विरोध का झंडा आजीवन बुलंद किये रहे और आखिर में शहीद हो गये। नक्सलियों के आगे नहीं झुकने वाले शहीदों को नमन।

नीरज कुमार दुबे

Monday, 11 February 2013

जिंदा अफजल पर जब होती थी राजनीति तो मौत पर भी होनी ही थी


संप्रग सरकार ने संसद हमला मामले में दोषी ठहराये गये अफजल गुरु को फांसी पर चढ़ाया तो इसके साथ ही राजनीति भी शुरू हो गयी। विपक्ष कह रहा है कि इस वर्ष होने वाले 9 राज्यों के विधानसभा चुनाव और अगले वर्ष होने वाले लोकसभा चुनावों को ध्यान में रखते हुए यह कदम उठाया गया तो सरकार की दलील है कि कानून ने विधिपूर्वक अपना कार्य किया। लेकिन वजह जो भी हो, भारत की सॉफ्ट स्टेट की छवि को तोड़ने में यह कदम जरूर मददगार साबित होगा।

अब 21 फरवरी से शुरू हो रहे संसद के बजट सत्र में सरकार के हौसले बुलंद रहेंगे और राष्ट्रपति के अभिभाषण में अपनी उपलब्धियों का बखान संप्रग सरकार खूब कर सकती है। पिछले छह महीने से सरकार और कांग्रेस ने एकदम कमर कस रखी है और समय के हिसाब से कभी सख्त आर्थिक तो कभी राजनीतिक फैसले लेकर उस पर तेजी से अमल कर रही है। पिछले माह जयपुर में हुई कांग्रेस की चिंतन बैठक में तय किया गया था कि विपक्ष जिन जिन संभावित मुद्दों पर आने वाले चुनावों में कांग्रेस को घेर सकता है उन उन मुद्दों का हल निकाल कर विपक्ष को नए मुद्दों की खोज करने में ही समय व्यतीत करने को विवश कर दिया जाए। अफजल की सजा पर अमल भी विपक्ष के तरकश के सभी तीरों को खत्म कर देने के प्रयास के तहत हुआ हो, ऐसा संभव है।

यह भी संभव है कि तय रणनीति के अनुसार गृहमंत्री सुशील कुमार शिंदे ने कांग्रेस की चिंतन बैठक में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और भारतीय जनता पार्टी पर हिन्दू आतंकवाद को बढ़ावा देने के लिए आतंकी प्रशिक्षण केंद्र चलाने का आरोप लगाया हो। बाद में कांग्रेस पार्टी ने शिंदे के इस आरोप से किनारा भी कर लिया और दूसरी तरफ भाजपा और संघ परिवार को अन्य मुद्दों को दरकिनार कर भगवा आतंकवाद मुद्दे पर धरने प्रदर्शन करने के लिए बाध्य कर दिया। जब भगवा आतंकवाद मुद्दा छा गया तो अफजल की फांसी पर अमल कर सभी तरह के आतंकवाद को एक ही चश्मे से देखने का दावा किया गया। जो शिंदे भगवा आतंकवाद को लेकर विपक्ष के निशाने पर थे उनकी स्थिति अब पहले से बहुत मजबूत हो गयी है क्योंकि उन्होंने राष्ट्रपति की ओर से अफजल गुरु की दया याचिका खारिज करने के तुरंत बाद उसको फांसी दिए जाने संबंधी आदेश पर हस्ताक्षर कर दिये। नरम व्यक्ति की अपनी छवि को तोड़ते हुए शिंदे ने बतौर गृहमंत्री तीन महीने के भीतर दो दुर्दांत आतंकवादियों- अजमल कसाब और अफजल गुरु को फांसी दिलवाकर और वह भी बड़े ही गुपचुप तरीके से, अपनी कार्यक्षमता को सिद्ध किया है। हालांकि यहां गौर करने वाली बात यह भी है कि इससे पहले शिंदे जिन मंत्रालयों में रहे उनमें कभी कोई बड़ा कार्य नहीं कर पाये ऐसे में यहां सवाल यह भी उठता है कि वह कहीं से निर्देशित तो नहीं हो रहे?

यह बात सही है कि अफजल को फांसी से केंद्र सरकार ने आतंकवाद को साफ संदेश दिया है कि किसी भी सूरत में भारत विरोधी कार्रवाई को बर्दाश्त नहीं किया जाएगा। लेकिन ऐसे मामलों पर तुरंत कार्यवाही होने से ही आतंकवादियों का मनोबल गिराया जा सकता है। सन 2005 में जब अफजल की सजा ए मौत पर सुप्रीम कोर्ट ने भी अपनी मुहर लगायी थी तभी यदि सजा पर अमल कर दिया जाता तो संभव है कि उसके बाद हुई आतंकी घटनाओं को अंजाम देने से पहले आतंकवादी दस बार सोचते। अफजल को फांसी की टाइमिंग पर सवाल अब भले विपक्ष उठा रहा हो लेकिन उसके मामले को जान बूझकर लटकाने के आरोप भी कांग्रेस पर लगते रहे। खुद अफजल ने भी ऐसा ही कुछ आरोप कांग्रेस पर लगाया था। 2008 में आए अफजल के एक साक्षात्कार के मुताबिक उसने कहा था, 'मैं तिल तिलकर मरना नहीं चाहता। लेकिन केंद्र सरकार फांसी नहीं देगी इसलिए मेरी मंशा है कि आडवाणी प्रधानमंत्री बन जाएं क्योंकि वही एकमात्र ऐसा व्यक्ति है जो उसकी फांसी पर जल्द फैसला ले सकता है'।

कसाब और अफजल मामले के बाद अब जब समझौता ट्रेन धमाका और मालेगांव बम धमाके के आरोपियों की दोषसिद्धि और सजा पर अमल की बात आएगी तो कांग्रेस सरकार उन पर भी तेजी से कार्यवाही कर हर तरह के आतंकवाद को एक ही नजर से देखने की बात और पुख्ता तरीके से कह सकेगी। अफजल को फांसी से होने वाले कुछ असरों की बात करें तो जिस तेजी के साथ कसाब और अफजल की सजा को अंजाम दिया गया उससे आतंकवादियों के मन में यह खौफ तो जरूर पैदा होगा कि अब सरकार सख्त फैसले लेने में हिचक नहीं रही है। साथ ही उन आतंकवादियों की बारी भी अब जल्द आ सकती है जोकि मौत की सजा पर अमल की प्रतीक्षा कर रहे हैं। राजनीतिक रूप से जो असर पड़े हैं उनमें प्रमुख यह है कि पिछले कुछ दिनों से भाजपा और संघ परिवार की ओर से देश में जो हिन्दुत्ववाद का माहौल बनाया जा रहा था उसको कांग्रेस ने राष्ट्रवाद के माहौल में बदल दिया है और राहुल बनाम मोदी की बहस भी अब कुछ दिनों तक थमने के आसार हैं। हालांकि अब इन अटकलों को भी बल मिला है कि सरकार समय से पहले चुनाव करा सकती है।

इस मामले को लेकर राजनीति पहले से ही होती रही है इसलिए अब कोई नई बात नहीं दिखाई पड़ती। भाजपा अब तक जिंदा कसाब और अफजल को लेकर सरकार को घेरती रहती थी वहीं अब कांग्रेस चुनावों में कसाब और अफजल की मौत का श्रेय लेने से नहीं हिचकेगी। कांग्रेस नेता और सूचना प्रसारण मंत्री मनीष तिवारी के एक बयान से इस बात की पुष्टि भी होती है जिसमें उन्होंने कहा, ''जिन्होंने आतंकवादियों को पनाह दी और उनके साथ कंधार गए’’ उन्हें अन्य के नेतृत्व वाली सरकारों पर अंगुली उठाने के पहले आत्मनिरीक्षण करना चाहिए।''

बहरहाल, इस मामले पर राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी को सबसे ज्यादा श्रेय जाता है क्योंकि उन्होंने दया याचिका पर अपने पूर्ववर्तियों की तरह निर्णय को लटकाया नहीं। उनके सख्त तेवरों से साफ है कि आतंकवाद किसी भी कीमत पर बर्दाश्त नहीं किया जाएगा और वह महज रबर स्टाम्प बने रहने वाले राष्ट्रपति नहीं हैं।

जय हिंद, जय हिंदी
नीरज कुमार दुबे